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________________ ७७ ग्रन्थपरीक्षा । (9) उमास्वामि श्रावकाचार । ( गताङ्क से आगे । ) ( २ ) अब, उदाहरण के तौरपर, कुछ परिवर्तित पद्य, उन पद्योंके साथ जिनको परिवर्तन करके वे बनाये गये मालूम होते हैं, नीचे प्रगट किये जाते हैं। इन्हें देखकर परिवर्त्तनादिकका अच्छा अनुभव हो सकता है । इन पद्योंका परस्पर शब्दसौष्ठव और अर्थगौरवादि सभी विषय विद्वानोंके ध्यान देने योग्य है : - १ - स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥१३॥ ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) स्वभावादशुचौ देहे रत्नत्रयपवित्रिते । निर्घृणा च गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥४१॥ ( उमास्वामि श्राव • ) २- ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमा हुर्गतस्मयाः ॥ २५ ॥ ( रत्नकरंड श्रा० ) ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्यमानित्वं गतदर्पमिदं विदुः ॥ ८५ ॥ ( उमा० श्रा० ) ३ - स्वयंशुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥ १५ ॥ ( रत्नकरंड श्रा० ) धर्मकर्मरते देवात्प्राप्तदोषस्य जन्मिनः । वाच्यतागोपनं प्राहुरार्याः सदुपगूहनम् ॥५४॥ ( उमास्वामि श्रा० ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522792
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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