________________
जितेन्द्र शाह
Nirgrantha
अन्त में जगत् के मूल कारण के विषय में प्राचीन मत-यहच्छावाद, स्वभाववाद और नियतिवादियोंका उल्लेख किया है" यदृच्छावादी जगत् की विचित्रता को आकस्मिक, स्वभाववादी स्वभावतः एवं नियतिवादी नियत ही मानते हैं ।
२८२
अन्त में इन सभी विचारधाराओं की मर्यादा का कथन किया गया है। इस प्रकार प्रश्नव्याकरण नामक अंग ग्रन्थ में उक्त १४ विभिन्न मतों का वर्णन प्राप्त होता है जो उस काल में विशेष प्रचलित रहे होंगे ।
सन्दर्भ एवं सहायक ग्रन्थ-सूची :
१. " पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पन्नता, तं जहा उवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासिताई, महावीरभासिताई, खोमपसिणाई, कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई ।" ठाणंगसुत्तं० संपा० मुनि जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय मुंबई - ३६, ई० स० १९८५, पृ० ३११ ।
"
२. वार्णगसुतं समवायंगसुतं च संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-३६, सं० १९८५ ५० ४४४-४४५ ३. नंदीसुतं सिरिदेववायगविरइये, संपा० पुण्यविजय मुनि, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई- २६ ई० स० १९६८, पृ० ४० । ४. पण्हवागरणं णाम अंगं तेणउदिलक्ख सोलहसहस्स पवेदि ९३१६००० / अक्खेवणी णिक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी चेदिचडव्विहाओ कहाओ वणेदि । १०५ षड्खंडागमः धवला टीका समन्वितः, सं० हीरालाल जैन, प्रथम खंड, जीवस्थान सत्प्ररूपणा - १, अमरावती १९३९.
५. प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु की खोज, डॉ० सागरमल जैन, जैन आगम साहित्य, संपा० के० आर० चन्द्र, प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद - १५, पृ० ६८- ९६.
६. सुत्तपिटक -दीघनिकाय पालि भाग - १, सामञ्ञफलसुत्त, नवनालन्दा विहार, नालन्दा, विहार, पृ० ४१-५३ ।
७. सूयगडंगसुतं, संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय बम्बई -३६, ई० स० १९७८, प्रथमश्रुत स्कंध १- ६३७ । ८. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥२॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० १९९५, पृ० ७१ ।
९. प्रश्नव्याकरणम्, संपा० शोभाचन्द्र भारिल्ल, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, (राजस्थान) सं० १९९३, पृ० ५४-५५ । १०. वही. पृ० ५५ ।
१९. वही. पृ० ५५ ।
१२. वही. पृ० ५५
१३. षड्दर्शन समुच्चय, हरिभद्रसूरि, संपा०, महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, ११०००३, पृ० ४५३ ।
१४. सूयगडंगसुत्तं, संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई- ३६, ई० स० १९७८ ।
१५. शास्त्रवार्त्ता- समुच्चय, हिन्दी विवेचनकार बदरीनाथ शुक्ल, चौखम्भा ओरियन्यलिया, वाराणसी - २२१००१, ई० स० १९७७,
श्लो० ३०-८७ पृ० ९७-२८३ ।
१६. वही ।
१७. प्रश्नव्याकरणसूत्र, वही पृ० ५९ ।
१८. इमं वि बितियं कुदंसणं असब्भाववाइणो पण्णवेंति मूढा - संभूओ अंडगाओ लोगो । सयंभुणा सयं य णिम्मिओ । एवं एवं अलियं पयंपंति । प्रश्नव्याकरण सू-४८ वही ।
१९. लोकतत्त्व निर्णय ग्रन्थ, आ० हरिभद्रसूरि, श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, संवत् १९५८ ।
२०. छान्दोग्य उपनिषद् उपनिषत्संग्रह संपा० जगदीश शाखी, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९८४ षध्यायः । मनुस्मृति
:
अ० १ श्लोक ५-१५ ।
२१. प्रश्नव्याकरण दशासूत्रम्, टीकाकार अभयदेवसूरि, संपा० विजय जिनेन्द्रसूरीश्वर श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल, ई० स० १९८९, पृ० ६१ ।
२२. वही. पृ० ६२ ।
२३. वही. पृ० ६३ ।
२४. ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, उपनिषत्संग्रहः, संपा० पं० जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ई० स० १९८४, पृ० १४२ । २५. जं वि इहं किंचि जीवलोए दीसइ सुकयं वा दुकयं वा एयं जदिच्छाए वा, सहावेण वा वि दइवतप्पभाषाओ वा वि भवइ । णत्थेत्थ किंचि कयगं तत्तं लक्खणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जंपंति इट्ठि-रस- सायागारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोर्स पू० प्रश्नव्याकरणसूत्र वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org