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________________ अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय, सवृत्ति सिद्धिविनिश्चय एवं सविवृति प्रमाणसंग्रह के उद्धरणों का अध्ययन कमलेश कुमार जैन [भोगीलाल लहेरचंद इंस्टिट्यूट ऑफ इन्डालॉजी, दिल्ली में "परम्परागत जैन साहित्य में प्राप्त उद्धरणों का अध्ययन" विषयक एक बृहद् योजना पर कार्य चल रहा है। उक्त योजना के अनुसार, प्रारम्भिक प्रयास के रूप में "अकलंकदेव कृत आप्तमीमांसाभाष्य एवं सविवृति लघीयस्त्रय के उद्धरणों का अध्ययन" शीर्षक निबन्ध "जैन-विद्या-शोध-संस्थान" लखनऊ द्वारा "जैन विद्या के विविध आयाम" विषय पर आयोजित विद्वत् संगोष्ठी, १९९७ में प्रस्तुत किया गया था। बाद में उक्त लेख अहमदाबाद से प्रकाशित वार्षिक शोध पत्रिका "निर्ग्रन्थ" के द्वितीयांक में छपा है । यह निबन्ध उसी दिशा में अगली कड़ी है। इसमें अकलंकदेव कृत अन्य तीन ग्रन्थों (जिनकी अकलंककर्तृकता निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है) के उद्धरणों का संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ।-लेखक] न्यायविनिश्चय - न्यायविनिश्चय अकलंकदेव की एक दार्शनिक रचना है। धर्मकीर्तिकृत प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इसकी रचना गद्य-पद्यमय हुई है । अतएव अकलंक का न्यायविनिश्चय नाम धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय नाम का अनुकरण हो सकता है । सिद्धसेन दिवाकर ने अपने न्यायावतार (जिसे अब अनेक विद्वान् सिद्धर्षिकृत रचना मानने लगे हैं) में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, इन तीन प्रमाणों का विवेचन किया है। बहुत संभव है कि अकलंक को न्यायावतार और प्रमाणविनिश्चय, ये दोनों ग्रन्थ इस नामकरण के लिए प्रेरक रहे हों । वादिदेवसूरि के अनुसार, यदि धर्मकीर्ति का न्यायविनिश्चय नामक कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा है, तो अकलंक द्वारा उसका भी अनुकरण किया गया होगा, ऐसा माना जा सकता है । न्यायविनिश्चय का सर्वप्रथम प्रकाशन सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ग्रन्थांक १२ के रूप में हुआ है। उसे न्यायविनिश्चयविवरण नामक टीका से संकलित / उद्धृत किया गया है । इसमें स्वयं अकलंकदेव कृत विवृति नहीं है। जबकि अकलंक के प्रायः अन्य सभी ग्रन्थों पर उनकी स्वोपज्ञ विवृति या वृत्ति प्राप्त होती है। न्यायविनिश्चय पर भी वृत्ति लिखी गयी थी, क्योंकि इसका एक अवतरण सिद्धिविनिश्चय टीका में न्यायविनिश्चय के नाम से उद्धृत मिलता है । यथा-२ "तदुक्तं न्यायविनिश्चये" "न चैतद् बहिरेव, किं तर्हि बहिर्बहिरिव प्रतिभासते । कुत एतत् ? भ्रान्तेः, तदन्यत्र समानम्" इति । दूसरा कारण, न्यायविनिश्चयविवरणकार का "वृत्तिमध्यवर्तित्वात्" आदि वाक्य भी है। न्यायविनिश्चय की विवृति की चर्चा करते हुए पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, जो अकलंककृत ग्रन्थों के सम्पादक भी हैं, ने लिखा है - "लघीयस्त्रय की तरह न्यायविनिश्चय पर भी स्वयं अकलंककृत विवृति अवश्य रही है । जैसा कि न्यायविनिश्चयविवरणकार के "वृत्तिमध्यवर्तित्वात्"४ आदि वाक्यों से तथा सिद्धिविनिश्चय के नाम से उद्धृत "न चैतद् बहिरेव-"५ आदि गद्यभाग से पता चलता है । न्यायविनिश्चयविवरण में "तथा च सूक्तं चूर्णो देवस्य वचनम्" कहकर समारोपव्यवच्छेदात्-" श्लोक उद्धृत Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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