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Vol. III-1997-2002
पण्हावागरणाई....
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(१) अंडे से उद्भूत जगत् एवं (२) स्वयंभू विनिर्मित जगत्
यहाँ तो केवल दो ही मतों का उल्लेख किया है। भारतीय दर्शनों में अनेक ऐसे दर्शन हैं जो जगत् की उत्पत्ति विभिन्न रूप से मानते हैं । ऐसे अनेक मतों का उल्लेख एवं वर्णन हरिभद्रसूरि ने लोकतत्त्वनिर्णय (प्रायः ईस्वी ७५०-७७५) नामक ग्रन्थ में किया है१९ । प्रायः इन सभी मतों के बीज हमें उपनिषदों में प्राप्त होते हैं। अंडोद्भव सृष्टि का सविस्तर वर्णन हमें छान्दोग्य उपनिषद् (प्रायः ई. पू. ५-४ शती) एवं मनुस्मृति (प्रायः ईस्वी सनका आरम्भ) (प्राय: ई. पू. ५-४-शती) में मिलता है । तदनुसार पूर्व में अस्तित्वमान जगत् असत् था बाद में जब वह नामरूप कार्य की ओर अभिमुख हुआ तो अंकुरित होते हुए अंडे के आकार का बना और उससे सृष्टि का उद्भव हुआ।
स्वयंभू विनिर्मित जगत् के विचारों की स्पष्टता करते हुए वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने वृत्ति में बताया है कि सृष्टि के पूर्व महाभूत रहित, एक मात्र तमोभूत अवस्था में अचिन्त्य शक्तिधारक विभु ने तप किया
और नाभि से दिव्य कमल की उत्पत्ति हुई तत्पश्चात् उससे ब्रह्मा और अंतत: सर्व सृष्टि का निर्माण हुआ२१ | ईश्वरवाद :
सृष्टि ईश्वर विनिर्मित है, ऐसा नैयायिक आदिका मानना है। सूत्र में कोई विशेष व्यक्ति के नाम का विधान तो नहीं किया है किन्तु टीकाकार ने वही अनुमान का प्रयोग किया है जिसका न्यायदर्शन में प्रयोग किया गया है यथा :- बुद्धिमत्कारणपूर्वकं जगत्संस्थानविशेषपूर्वकत्वात् घटादिवदिति२२ । अर्थात् इस सृष्टि का निर्माण किसी बुद्धिमान् कर्ता ने किया है, क्योंकि संस्थानविशेष से युक्त है, जिस तरह घट आदि पदार्थ संस्थानविशेष से युक्त हैं और उनका कोई न कोई कर्ता है, उसी तरह । विष्णुवाद :
तत्पश्चात् कुछ लोग के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि संपूर्ण जगत् विष्णु-आत्मक है । टीकाकार ने प्रस्तुत विचारधारा के आधार में सुप्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किया है२३ । यथा :
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्वविष्णुमयं जगत् ॥ अर्थात् जल में, स्थल में, पर्वत के मस्तक पर, अग्नि में सर्वत्र विष्णु व्याप्त है, कोई ऐसा स्थल नहीं है जहाँ विष्णु का अस्तित्व न हो । आत्माद्वैतवाद :
अद्वैतवादियों का कथन है कि इस संसार में एक ही आत्मतत्त्व है जिस तरह एक ही चन्द्र विभिन्न जल में प्रतिबिम्बित होता है उसी तरह एक ही आत्मतत्त्व विभिन्न भूतों में व्यवस्थित हुआ है, जिसका विभाव ब्रह्मबिन्दु-उपनिषद् में मिलता है२४ । यथा :
एक एव ही भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१२॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्चभाव्यं । इसी पुरुष को - आत्मतत्त्व को अकर्ता, वेदक, नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण, निर्लिप्त माना गया है। इन सब गुणों का वृत्तिकार सविस्तर वर्णन करते हुए खण्डन करते हैं ।
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