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जितेन्द्र शाह
Nirgrantha
विज्ञान, संज्ञा और संस्कार को जीव मानते हैं ।
कुछ लोग मन को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं । आत्मा को शाश्वत तत्त्व के रूप में अस्वीकार करनेवाले, शरीर को सादि-सांत एवं वर्तमान भव के अतिरिक्त पूर्वभव, पुनर्भव को अस्वीकार करनेवाले, इन सभी को मृषावादी बताया गया है१९ । क्योंकि ये लोग मानते हैं कि दान देना, व्रतों का आचरण करना, पौषध की आराधना करना, तपस्या करना, संयम का आचरण करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का कुछ भी फल नहीं है। प्राणवध एवं असत्यभाषण भी अशुभ फलदायक नहीं हैं । चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं हैं। परिग्रह एवं अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं । अर्थात् उनका भी कोई अशुभ फल नहीं होता । नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों की योनियाँ नहीं है। देवलोक भी नहीं है। मोक्षगमन या मुक्ति भी नहीं है। माता-पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ भी नहीं है। अर्थात् पुरुषार्थ कार्य की सिद्धि में कारण नहीं है। प्रत्याख्यान त्याग भी नहीं है। भूत-वर्तमान-भविष्य काल नहीं है और मृत्यु नहीं है। अरहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव भी नहीं होते । न कोई ऋषि, न कोई मुनि है। धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत, किचित् भी फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवृत्ति करो । किसी भी प्रकार के भोगविलास से परहेज मत करो। न कोई शुभ क्रिया है न कोई अशुभ क्रिया है ।
उपर्युक्त वर्णन भारतीय दर्शन के विभिन्न ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन के अनुकूल पाया जाता है । चार्वाकदर्शन की प्रसिद्ध उक्ति
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, तावत् वैषयिकं सुखं ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः१३ ॥ अर्थात् जब तक जीओ सुख से जीओ, सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए पैसा न हो तो ऋण लेकर भी खाओ-पीओ । यह शरीर यहीं भस्मीभूत हो जाता है । प्रस्तुत विचारधारा का ही विस्तार उक्त सूत्र में पाया जाता है । विशेषता यह है कि यहाँ पञ्चस्कन्धवादी, वायुजीववादी एवं मनोजीववादी को एक ही प्रकार की आचार विषयक विचारधारा को माननेवाले बताया गया है। उसका मूल कारण यह है कि उक्त सभी विचारधारावाले लोग आत्मा का सनातन अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं । सूत्रकृतांग (द्वितीय स्कंध; प्रायः ई. पू. १ शती) में भी चार्वाक आदि दार्शनिकों की बात कही गई है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय (प्रायः ईस्वी ७५०-७७५) में इसी मान्यता की अधिक विस्तार से चर्चा की है५ |
सामान्यतः यह माना जाता है कि चार्वाक में किसी भी प्रकार का वैमत्य नहीं है किन्तु उस समय चार्वाक जैसी मान्यताओं को धारण करने वाली एकाधिक विचारधारा अस्तित्व में थी, इस बात को प्रश्नव्याकरण के उक्त सूत्र से पुष्टि मिलती है । यह बात हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में बतायी है । आचार्य अभयदेवसूरि ने प्रश्नव्याकरण की टीका (प्रायः ई. १०८०) में भी इन विचारधाराओं का विस्तार से विवेचन किया है । असद्भाववादी :
नास्तिकवादी के बाद प्रश्नव्याकरण में दूसरा मत असद्भाववादी का बताया गया है । जीव के अस्तित्व की चर्चा की तरह ही जगत् के अस्तित्व की चर्चा भी दर्शनशास्त्र का महत्त्वपूर्ण प्रश्न रहा है । जगत् सत् है या असत्, सादि-सांत है या अनादि अनन्त ? यदि सादि-सान्त है तो वह सकर्तृक है या अकर्तृक ? जगत् का सम्बन्ध जीव के साथ कैसा है ? इन प्रश्नों के आधार पर ही अनेक मतों या सिद्धान्तों का उदय हुआ ।
सृष्टि को पूर्व में असत् मानने वाले दो मतों का वर्णन प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है ।
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