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________________ Vol. III - 1997-2002 पण्हावागरणाई.... २७९ तत्त्व ही भारतीय दर्शन में चिंतन के मुख्य विषय रहे हैं । जीव, जगत् एवं ईश्वर तत्त्व की खोज करते हुए भारतीय दर्शन की यात्रा का प्रारंभ हुआ एवं शनैः शनैः प्रगति होती गई । विकास की इस प्रगति में विभिन्न मतों का भी उदय हुआ । ऐसे अनेक मतों का वर्णन हमें बौद्ध दर्शन के सामञफलसुत्त, निर्ग्रन्थदर्शन के सूत्रकृतांग एवं वैदिक दर्शन के श्वेताश्वतरोपनिषद् में मिलता है। जबकि प्रश्नव्याकरण में १४ विभिन्न मतों का उल्लेख निम्न प्रकार से प्राप्त होता है (१) नास्तिकवादी अथवा वामलोकवादी - चार्वाक (२) पञ्चस्कन्धवादी - बौद्ध (३) मनोजीववादी - मन को ही जीव माननेवाले (४) वायुजीववादी - वायु को ही जीव माननेवाले (५) अंडे से जगत् की उत्पत्ति माननेवाले (६) जगत् को स्वयंभूकृत माननेवाले (७) संसार को प्रजापति निर्मित माननेवाले (८) संसार को ईश्वरकृत माननेवाले (९) समग्र संसार को विष्णुमय स्वीकार करनेवाले (१०) आत्मा को एक, अकर्ता, वेदक, नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण, एवं निर्लिप्त माननेवाले (११) जगत् को यादृच्छिक माननेवाले (१२) जगत् को स्वभावजन्य माननेवाले (१३) जगत् को देवकृत माननेवाले (१४) नियतिवादी - आजीवक मतावलंबी नास्तिकवादी : आस्तिक एवं नास्तिक विचारधारा के विषय में भी प्राचीन काल से ही विवाद चला आ रहा है। आस्तिक अर्थात् जीव, कर्म, पुण्य, पाप आदि अदृष्ट एवं अतीन्द्रिय पदार्थों को स्वीकार करने वाले एवं नास्तिक अर्थात् उक्त अतीन्द्रिय तत्त्वों का अपलाप करने वाले । इस अर्थ में चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शन आस्तिक हैं । प्रस्तुत अर्थ को ही प्रधानता देते हुए सूत्रकार ने बताया है कि जो आत्म तत्त्व को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में एवं शाश्वत तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करते वे सभी मतावलंबी प्रायः एक ही विचारधारा का अनुसरण करते हैं। वे लोक-विपरीत मान्यताओं को धारण करते हैं एवं तदनुसार आचरण भी करते हैं । यहाँ पर आत्मतत्त्व को, आत्मा रूप शाश्वत तत्त्व को, आत्मा एवं कर्म के सम्बन्ध को, संयोग एवं वियोग को नहीं मानने वाले चार्वाक, शून्यवादी बौद्ध, पञ्चस्कन्धवादी बौद्ध, मनोजीववादी एवं वायुजीववादी मतावलम्बियों की आचार विषयक विचारधारा प्रस्तुत की गयी है । सूत्र में नास्तिकवादियों की विचारधारा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि शून्यवादी जगत् को शून्य अर्थात् सर्वथा असत् मानते हैं। क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है । वह मनुष्यभव में या देवादिपरभव में नहीं जाता । वह पुण्य-पाप का किंचित् भी स्पर्श नहीं करता । इतना ही नहीं किन्तु सुकत अर्थात् पुण्य एवं दुष्कृत अर्थात् पाप का फल नहीं है । यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है, और वह वायु के निमित्त से ही सब क्रिया करता है । कुछ लोग श्वासोच्छ्वास को ही जीव मानते हैं। कुछ लोग (बौद्ध) पाँच स्कंधों अर्थात् रूप, वेदना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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