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________________ १६ रज्जनकुमार Nirgrantha रहती है। इन तीनों के संतुलन की स्थिति में व्यक्ति के कर्मों का बंध अल्प होता है फलत: वह निर्वाण या मुक्ति पथ की ओर शीघ्रता से कदम बढाता है। एक क्षण ऐसा भी आता है कि वह सारे कर्मावरण को छेद कर मुक्ति को पा सकता है। अगर मुक्ति जैसी चीज को मान्यता नहीं भी दी जाए तो भी एक परम शांत एवं आनंदमय जीवन की प्राप्ति इन भावनाओं के चिन्तन द्वारा की जा सकती है और वर्तमान के संघर्षमय जीवन में यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। टिप्पणी :१. व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रथम खंड, प्रधान सं० मुनि मिश्रीलाल 'मधुकर', श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) १९८२, पृ. ४२-४४ गाथा १/२/२-४. (क) भगवती-आराधना, भाग २, गाथा १७१०, सं० पं० कैलाशचन्द्र सिद्धांतशास्त्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९७८, पृ. ७६१. (ख) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २, ३ सं० प्रो० ए० एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास १९६०, पृ. २. (ग) ज्ञानार्णव, २/७ अनु० पन्नालाल बाकलीवाल, श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास १९८१, पृ. १६. ३. उत्तराध्ययनसूत्र, १९/१३, विवे० साध्वी चंदना, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, पृ. १८७. ४. भगवती आराधना, भाग-२, गाथा १७३८, १७३९, पृ० ७७३. सो नत्थि इहोगासो लोए वालग्गकोडिमित्तो वि जम्मण-मरणा बाहा अणेगसो जत्थ न य पत्ता ।। ५९५॥ मरणविभत्ति, पइण्णयसुत्ताई, भाग-१, सं० मुनि पुण्यविजय एवं पं० अमृतलाल भोजक, प्रथम संस्करण, श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई १९८४, पृ० १५४. न तं अरी कंठद्दत्ता करेइ जसे करे अप्पणियादुरप्पा से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दया विद्णो ॥२०/४८।। उत्तराभ्ययनसूत्र, साध्वी चंदना, पृ. २१२. अन्तो इमं सरीरं अन्तो हं, बंधवा विभे अंते ।।५९०॥ मरण. पदण्ण्यसुत्ताई - पुण्यविजयजी, पृ. १५३. ८. असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं ।।८०७॥ भगवती-आराधना, भाग-२, पृ. ८०६. ईसा-विसाय-भय-कोह-लोह-दोसेहिं एवमाईहिं। देवा वि समभिभूया तेसु वि य कओ सुहं अत्थि ? ॥६।। मरण पइण्णसुत्ताई - प्रथम भाग, सं० पुण्यविजयजी, पृ० १५५. १०. भावनायोग, उपाध्याय आत्मारामजी म०, s. S. Jain Union, प्रथम संस्करण, लुधियाणा १९४४, पृ. ४७. ११. क्षपत्यन्तीनं चिरतरचितं कर्मपटलं ततो ज्ञानाम्भोधिं विशति परमानन्दनिलयम् ॥९॥ ज्ञानार्णव - सं० पन्नालाल बाकलीवाल, पृ. ४५. १२. सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् । निर्जरा यमिनां पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ॥२॥ वही०, पृ. ४४. १३. धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पनित्तो जिणेहिं वरदंसिहि ॥२८/७।। उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी चंदना, पृ. २८९. १४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, प्रो० ए० एन० उपाध्ये, गाथा ११५-११८, पृ० ५५-५७. १५. तत्त्वार्थसूत्र, विवे० पं० सुखलाल संघवी, तृतीय संस्करण, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६, ३/१-६, पृ० ११७. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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