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________________ Vol.II-1996 भावना : एक चिन्तन दुःख है। यहाँ अत्यंत उष्णता, प्रचंड शीत, तीव्र क्षुधा वेदना, भयंकर प्यास, दुर्गंधयुक्त कड़वे भोज्य पदार्थ आदि दुःखों के क्लेष को सहना पड़ता है। यहाँ के निवासी प्राकृतिक रूप से कपटी, ईर्ष्यालु, क्रोधी, झगड़ालू होते हैं। स्वार्थपूर्ति के लिए निरंतर संघर्ष करते रहते हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( प्रायः ईस्वी ३५० ) में नरकभूमि का वर्णन करते हुए कहा गया है- यहाँ अतिप्रचंडशीत, आतप, वध, दुर्गंध, भय आदि जनित वेदनाएँ हैं। यहाँ किसी प्रकार का सुख नहीं है। नरक में रहनेवाले जीव नपुंसक होते है, अतः उन्हें कामसुख भी उपलब्ध नहीं होता है"। लोकभावना के अंतर्गत लोक के इन्हीं स्वरूपों पर चिन्तन किया जाता है। व्यक्ति अपने सद्प्रयास से मर्त्यलोक से निकलकर सिद्धलोक को प्राप्त कर सकता है। वस्तुत: सिद्धलोक की प्राप्ति ही मानव मात्र का ध्येय भी माना जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति मुक्ति चाहता है, बंधन नहीं। कोई भी नरकवासी नहीं बनना चाहता है। १५ धर्म क्या है ? मानव को 'धर्म' से क्या लाभ हो सकता है ? उसे धर्म के प्रति कौन से कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए इत्यादि प्रश्नों के विषय में चिंतन धर्म भावना कहलाता है। धर्म आस्था का विषय है और आस्था के द्वारा ही व्यक्ति किसी विषय में श्रद्धा रख सकता है। श्रद्धा एक पवित्र भावना है। श्रद्धावश व्यक्ति किसी के प्रति राग-द्वेष का भाव रखने लगता है। यह राग-द्वेष उसके बंधन का कारण बन जाता है। परंतु यहाँ श्रद्धा का भाव राग-द्वेष को दृढ करने से न होकर उसके विच्छेद से है जब व्यक्ति इससे मुक्त हो जाता है तब वह सिद्ध, जिन तीर्थंकर कहलाने लगता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि इस संसार में एकमात्र शरण धर्म है, इसके अतिरिक्त जीव की रक्षा कोई और नहीं कर सकता है। जरा-मरण-काम- तृष्णा आदि के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप का काम करता है। इसी धर्मरूपी द्वीप पर जीव शरण लेता है" । यही कारण है कि धर्म को आत्मकल्याण करनेवाला माना गया है, क्योंकि उसमें स्वार्थ, ममता, राग, द्वेष, आदि दुर्भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। इन सब दोषों से मुक्त व्यक्ति समस्त प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त हो जाता है और परम सुख की अनुभूति करता है। इस संसार में बहुत सारी दुर्लभ वस्तुएँ पाई जाती है। यह संभव है कि कोई जीव उन दुर्लभ वस्तुओं को आसानी से प्राप्त कर ले, परंतु बोधि (सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन- सम्यग्चारित्र) की प्राप्ति अत्यंत कठिन है। जीव नारक- तिर्यंच- मनुष्यइन योनियों में भटकता रहता है। भाग्यवश उसे मानव पर्याय मिल जाता है। इसी पर्याय में वह कर्मावरण के आवरण का क्षय करके योनि भ्रमण से मुक्त हो सकता है। कहा भी गया है कि किसी पुण्य कार्य के कारण ही जीव को मानव पर्याय प्राप्त होता है। इस मानव पर्याय का मुख्य ध्येय बोधि प्राप्त करना है । यही कारण है कि भगवान महावीर मनुष्यों को बोधि प्राप्ति का संदेश देते हुए कहते हैं- हे मनुष्यों! बोध को प्राप्त करो, जबतक जीवन है तभी तक तुम बोध को पा सकते हो, मृत्यु के बाद उसे प्राप्त करना संभव नहीं है। क्योंकि बीती हुई रात्रियाँ जिस प्रकार वापस नहीं लौटती है ठीक उसी तरह पुनः मानव जीवन मिलना भी दुर्लभ है। आचार्य शुभचन्द्र का मानना है कि बोधि की प्राप्ति संसाररूपी समुद्र में अत्यंत दुर्लभ है। इसे पाकर भी जो खो देता है वह हाथ में आए हुए रत्न को समुद्र में डाल कर पुनः खोजने और नहीं पाने जैसा ही दुर्लभ कार्य है" । बोधि अर्थात् रत्नत्रय जीव का स्वभाव है। स्वभाव की प्राप्ति दुर्लभ नहीं मानी जा सकती। परंतु जीव जब तक अपने स्वरूप को नहीं जानता है और कर्म के अधीन रहता है तब बोधिस्वभाव पाना दुर्लभ है और कर्मकृत सब पदार्थ सुलभ हैं। कर्मावरण को नष्ट करके बोधिस्वरूप की प्राप्ति ही मानव का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए और उसकी प्राप्ति हेतु सतत जागरूक रहना अपेक्षित है। अन्यथा बोधि की प्राप्ति नहीं होगी और समय बीत जाने पर मात्र पश्चात्ताप के और कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है। इस तरह हम देखते हैं कि मानव मन पर विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इन भावनाओं के चिन्तन से व्यक्ति के मन में उठनेवाले बुरे विचार, वासनाएँ, राग-द्वेष अल्प होते जाते हैं। अल्प राग-द्वेष से युक्त व्यक्ति समत्व स्थिति में आ जाता है। समत्व भाव से युक्त व्यक्ति की मानसिक- वाचिक - कायिक सभी चेष्टाएँ अत्यंत संतुलित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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