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Vol.II-1996
भावना: एक चिन्तन
से रक्षा के लिए निर्मित कराता है। उदरपूर्ति एवं स्वादऐषणा के शमन हेतु स्वादिष्ट पकवान्नो का पाक करवाता है। इन सब कार्यों को संपन्न करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रशस्त और अप्रशस्त कर्म करने होते हैं। इन सबके कारण उसकी आत्मा पर पड़ने वाले कर्मावरण का बंध दृढ होता है और वह निरंतर जन्म-मरण के चक्र को भोगता रहता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि आत्मा ही सुख-दु:ख का कर्ता-भोक्ता है। श्रेष्ठाचार से युक्त आत्मा मित्र है तथा दुराचार से युक्त आत्मा शत्रु। दुराचार में प्रवृत आत्मा जितना अपना अनिष्ट करती है उतना ज्यादा अनिष्ट घोर शत्रु भी नहीं कर पाता है। ऐसे दुराचारी आत्मा मृत्यु के समय अपने दुराचार को याद करके दु:खी हुआ करता है और निरंतर अपना संसार बढ़ाता रहता है। एकत्व-भावना को चिंतन करने वाला व्यक्ति यह मेरी स्त्री है! यह मेरा पुत्र है! यह मेरा सहोदर है! यह मेरी सम्पति है! मैं उसका हूँ! यह मेरा घर है! आदि भावों से मुक्त होकर ममतारूपी शत्रु को जीत लेता है तथा कल्याणरूपी पथ पर आगे बढ़ जाता है।।
संसार की समस्त वस्तुएँ हमसे भिन्न है। हम अलग हैं, हमारे बंधु-बांधव, हमारे धन-ऐश्वर्य ये सभी हमसे भिन्न हैं। अन्यत्व भावना का यही हार्द है। यहाँ मुख्यरूप से भिन्नता पर चिन्तन हुआ है। यह माना गया है, कि व्यक्ति का स्वयं का उसका अपना शरीर अपना नहीं है, क्योंकि इस शरीर में निवास करने वाली आत्मा इस शरीर से भिन्न है। अलगाव की अवधारणा की यह पराकाष्ठा मानी जा सकती है। मरणविभत्ति (प्राय: ईस्वी दूसरी शती) में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया गया है कि हमारा यह शरीर अन्यत्व है, हमारे बंधु-बांधव अन्यत्व हैं। अन्यत्व के इस भाव का ज्ञान नहीं होने के कारण ही व्यक्ति दु:ख का भोग करता रहता है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने शरीर में होने वाले कष्टों, परिषहों को निर्लिप्त भाव से सहन करने का निर्देश दिया है। उनकी दृष्टि में शरीर को जो कष्ट, वेदना आदि होता है उसे निर्लिप्त भाव से सहन करना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं करने से हमारे ज्ञानावरण कर्म में वृद्धि होगी और अज्ञान की इस प्रक्रिया में हमारे कर्मावरण का बंधन और अधिक दृढ होता जाएगा। फलत: हम संसार रूपी महासमुद्र के गहरे जल में डूबते उतराते रहेंगे। जबकि हमारा मुख्य ध्येय इस महासमुद्र को पार करने से है, न कि इसमें डूब जाने से है। इसी तरह बंधु-बांधवों के सुख-दुःख में इतना अधिक नहीं रम जाना चाहिए कि ये हमारे लिए बंधन के सबल कारण बन जाएँ। अन्यत्व भावना हमें यह बोध कराती है कि इस संसार में लोकव्यवहार को चलाने के लिए जितने भी संबंध है वे कर्माधीन हैं। हमें उनसे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए।
__ अशुभ-वृत्ति को त्यागने के लिए अशुचि-भावना का चिंतन किया जाता है। अशुचि का अर्थ अशुभ या अपवित्र होता है। प्राय: व्यक्ति अशुभ एवं अपवित्र वस्तुओं से बचकर रहना चाहता है। जैन ग्रंथों में अशुभ तत्त्वों से बचकर जीवन यापन करने का निर्देश दिया गया है तथा उनके प्रति ममत्व या आसक्ति नहीं रखने को कहा गया है। आचार्य शिवार्य का मानना था कि अर्थ, काम और मनुष्य-शरीर अशुभ है। अत: व्यक्ति को इन अशुभ तत्त्वों से बचकर रहना चाहिए। मनुष्य का यह शरीर अनेकानेक व्याधियों का घर है। चर्वी, रुधिर, मांस आदि अपवित्र वस्तुओं से बना यह शरीर मोह करने लायक नहीं है। शरीर के विभिन्न अंगो में कफ, मल, मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं का संग्रह रहता है। अत: ऐसे शरीर के प्रति मानव को किसी तरह का ममत्व नहीं रखना चाहिए।
आत्मा को बंधन में डालने वाले कर्मों का आगमन उसकी तरफ कैसे होता है, इन तथ्यों पर विचार करने के लिए आस्रव भावना का चिंतन किया जाता है। मानव के मानसिक - वाचिक - कायिक वृत्तियों के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। शुभवृत्ति से कर्मावरण का बंधन क्षीण और कमजोर होता है। जबकी अशुभ वृत्ति से यह दृढ होता है। यही कारण है कि व्यक्ति को निर्दोष वचन, निर्दोष कर्म, तथा निर्दोष विचार करने को कहा गया है। क्योंकि इनसे उसे संसार से मुक्ति सुलभ हो जाती है। मरणविभत्ति में ईर्ष्या, विषाद, मान, क्रोध, लोभ, द्वेष आदि को आसव-द्वार माना गया है। इन्हीं आसव-द्वारों के माध्यम से आत्मा की तरफ कर्म-पुद्गलों का आगमन होता है। ये कर्म-पुद्गल
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