SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ रज्जनकुमार Nirgrantha शुद्ध करने होते हैं। इस हेतु उसे निम्नलिखित बारह भावनाओं का चिन्तन करने का निर्देश दिया गया है- १. अनित्य-भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार-भावना, ४. एकत्व-भावना, ५. अन्यत्व-भावना, ६. अशुचि-भावना, ७. आम्रव-भावना, ८. संवर-भावना, ९. निर्जरा-भावना, १०. लोक-भावना, ११. धर्म-भावना और १२. बोधि-भावना। इन बारह भावनाओं के चिन्तन से व्यक्ति संसार एवं उसमें पाई जानेवाली असारता को अच्छी तरह से जान लेता है। जब उसे इसका बोध हो जाता है तब वह सम्यक् आचरण को अपना लेता है। सम्यक् आचरण अपना लेने से वह अपने कर्मावरण के बंधन को छेदने में समर्थ होता है। ज्यों-ज्यों उसके कर्मावरण क्षीण होते हैं उसे परमसुख का अर्थ समझ में आता जाता है। अंत में वह परमानन्द को प्राप्त कर लेता है। परंतु हमें यहाँ यह अवश्य याद रखना होगा कि परमानन्द (मोक्षावस्था) की प्राप्ति त्रिरत्न के द्वारा ही संभव है और इस त्रिरत्न की प्राप्ति में भावना या अनुप्रेक्षा मात्र एक सहायक बन सकता है। संसार भावना के द्वारा व्यक्ति संसार की अनित्यता का बोध करता है। इस भावना के चिन्तन करने से यह भलीभाँति जान लेता है कि संसार की कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। सांसारिक वस्तुएँ विनाशशील है। इस नाशवान् वस्तु के प्रति मोह रखना व्यर्थ है। क्योंकि नाशवान् वस्तु के प्रति मोह रखने का अर्थ व्यर्थ के प्रपंच में पड़ना है। उत्तराध्ययनसूत्र (प्राय: ईस्वी पूर्व २ शती) में स्पष्टरूप से कहा गया है कि संसार की सभी वस्तुएँ (शरीर, धनादि) अनित्य हैं। उनके प्रति किसी तरह का मोह नहीं रखना चाहिए क्योंकि यह बंधन को दृढ करता है। अशरणभावना मानव को संसार में पाए जाने वाले शरणागत तत्त्वों के प्रति जागृत करता है। इस भावना के चिंतन से साधक को यह ज्ञान हो जाता है कि इस संसार में धन, वैभव, सुख आदि के जो साधन हैं वे उनके लिए शरणभूत नहीं हैं। क्योंकि जब व्यक्ति का अंतिम समय आता है तो ये सारी वस्तुएँ उसका साथ छोड़ देती है। कोई भी उसके अंतिम प्रयाण में साथ नहीं देता है और न रक्षा ही कर पाता है। आचार्य शिवार्य "अशरण-भावना" पर प्रकाश डालते हुए आराधना (प्राय: ६वीं शती)में लिखते हैं - सभी प्रकार के विद्या, तंत्र-मंत्र, राजनीति, छल-प्रपंच, महाबलशाली, महापराक्रमी व्यक्ति भी किसी को शरण नहीं दे सकता है क्योंकि ये सभी कारण व्यक्ति को आनेवाली मृत्यु से नहीं बचा सकते हैं। जन्म और मरण, उत्पन्न और नाश अवश्यंभावी तथ्य है। इसी तरह से कर्म और फल में अविनाभाव संबंध है। जीव द्वारा किया गया कर्म कभी भी निष्प्रयोजन नहीं हो सकता है। सभी कुछ कर्मजनित है। अशरण-भावना में कर्म को प्रधान माना गया है; और ऐसा लगता है कि इसे ही परिणाम का नियंता भी मान लिया गया है। संसार में दुःख का साम्राज्य है। यहाँ जो सुख है, वह भी दु:ख का कारण बनता है। संसार-भावना के चिन्तन करने से व्यक्ति इस तथ्य से अवगत हो जाता है तथा संसार के सुख-दुःख से विरत रहने का प्रयत्न करता है। मरणविभक्ति प्रकीर्णक (प्राय: ईस्वी दूसरी शती) में संसार की दुःखमयता को विवेचित करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि इस संसार में चारों ओर दुःख ही दुःख है। उनसे कोई भी व्यक्ति नहीं बच सकता है। कभी उसे शरीर की वेदना से कष्ट होता है तो कभी वह मानसिक क्लेश से पीड़ित होता है। कभी उसे स्त्री-पुत्र के मोह का दुःख है तो कभी धन-वियोग की परिस्थिति उत्पन्न होने से पीड़ित होता है। कभी मनुष्य को मृत्युरूपी अवश्यंभावी दु:ख की वेदना झेलनी पड़ती है तो कभी जरारूपी शत्रु का सामना करना पड़ता है। दुःख की इस दुरावस्था के कारण ही मानव इनसे बचना चाहता है। मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है। वह जो भी कर्म करता है, उसके फल का भोक्ता वह स्वयं है। कर्म कोई करे और फल कोई भोगे ऐसा नियम नहीं है। एकत्व-भावना में वस्तुत: इसी तरह के विचारों का चिंतन किया जाता है। प्राय: यह देखा जाता है कि मानव अपने सहोदरों के लिए व्याकुल रहता है। अपने पुत्र-पुत्रियों-संबंधियों-मित्रों को सदा सुखी देखना चाहता है। उन्हें सुख प्रदान करने के लिए धनोपार्जन करता है। सुंदर और मजबूत भवन शीतादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy