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१०० મહાબોધિવિજય
Nirgrantha श्री सोमसुंदरसूरि प्रसादित सामाचारी कुलकने अनुसारि तपागछीयसुविहितसाधुइ ४६ नियम गीतार्थ शाखि पडवजवा ॥१३॥
श्रुत-व्यवहारइं जीतव्यवहारइ लिहा पासिं संयतें उत्सर्गथी पुस्तक लिखावतुं नहीं ! कारणें लिखावें तो श्री सोमसंदरसरि श्री हीरविजयप्रसादितजल्पने अनुसार ५०० अथवा १००० गाथा लगई गुरु अन्यथा गुरुगच्छनिश्रित थाई ते पुस्तक गुर्वादिकनी आज्ञा विना वांचq भणदुं न कल्पे ॥१४॥
श्रुत-जीतऽगीतार्थसंयत पुस्तक क्रय विक्रं न ल्ये कारणि लेवू पडे तो गुरुनी आज्ञाइं गृहस्थ पासि लेवरावइ ॥१५॥
तथा श्रुतव्य० गुरुनी आज्ञा विना ऽगीतार्थ अपवाद सेवे नहीं ॥१६॥
जीतकल्पादिकनई अनुसारि ऋण आपी विशुद्ध न थाई तिहां सूधी देवाधिद्रव्यभक्षक साथिआहारादिकपरिचय धर्मार्थी साधुई श्रावकें न करवो । अनें ते दोषनी विपरीत (था) पना न करवी ॥१७॥
आवश्यकभाष्यादिकनें अनुसारि पोतानी टोलीना गृहस्थोने-आवर्जवानिमित्ते पूर्वोक्त दोष सेवी जे गीतार्थशाखि आलोयणा न ल्ये आप सुद्ध परूपक करी माने ते भूमीगतमिथ्यात्वी जाणिवा । तेहन उ-दर्शन न कवु ॥१८॥
उपदेशमाला सुगडांगवृत्ति छत्रीसजल्प तथा उ० श्री यशोविजयग० प्रसादित श्रद्धानजल्पने अनुसारि मत्सरि सुविहितगछनी आज्ञा निरपक्ष्यथका सुद्ध सामाचारी विघटावी जे इहलोकानुरोधि अज्ञानकष्ट करी ते मायामृषावादी सद्देहवा ॥१९॥
तथा श्री हीरप्रसादितसामाचारीजल्पानुसारि नगरनी निश्राई २ मासकल्प उपरांत गुरुनी आज्ञा विना रहेवू न कल्पे ॥ कल्पभाष्य श्री जगच्चन्द्रसूरि प्रसादितसामाचारिजल्पानुसारि लोक आगलि सुविहितगछनां गुण ढांकी दोष प्रकासी लोकने व्युद्ग्रहसहित करी वंदनपूजनादिकव्यवहार टलावे ते शासनोच्छेदक सद्देहवा ॥२०॥
निशीथचादिकने अनुसार अगीतार्थ साधु गुरुनी आज्ञा विना नित्य वखाण करे निःशूक थइ गृहस्थ आगि सिद्धांत वांचे ते संयम श्रेणि बाह्य पासत्था जाणवा ॥२१
आवश्यकनियुक्ति, दशवै. दशाश्रुतस्कंधाकने अनुसारि सांभोगिक पदस्थनें योगि निमंत्रणा विना जे नित्ये आहारादिक करे तेहनां नोकारसी प्रमुख पच्चक्खाण तथा महाव्रतलोपाइ गुरु अदत्ताहारादिकमाटि ॥२२
सामाचारीग्रंथाने अनुसारि गणेश साधुइं गुरुनी आज्ञा विना उपधान वहेरावे नहीं व्रतोच्चार करावे नहीं माल पहेरावें नहीं वांदणां देवरावे नहीं पोसहप्रमुखना आदेश नापे । स्वेछाइः एतला वानां करावे ते गीतार्थनो प्रत्यनीक थाइ गुरुनी भक्तिभंगाशाताना संभवे माटि बीजुं एह विधि पिण गीतार्थगम्य छे । पंचाशकने अनुसारि एहवा माईमृषावादीने साधु सुद्धपरूपक सद्दहीं विनयादिक करे तेहने पिण माठां फल संभवे ॥२३॥
पंचांगीने अनुसारं खोटां आलंबन लेइ कदाग्रहथी सामाचारी विघटावे ते अवकर चंपकमाला सरिषा जाणिवा ॥ जिम समदृष्टि ए बोल विचारी आराधक थाइ तिम आत्मा सुविहितें करवो ॥२४॥
तथा सुवि०गछनायकें गणबहिःकृत संयतना शिष्यने पिण गछवासी पदस्थ उपस्थापनापूर्वक दिग्बंध आचार्यादिकनी संमति ज करे अन्यथा तो पूर्वोक्त ४ श्रुतजीत व्य० ने अनुसारि स्वपर गछनो दिग्बंध सर्वथा न घटई छ इम गणबहिः कृतसंजतने गछवासी पदस्थ स्वनिश्राइंकहि छे तेहने गुरुकुलवास स्वप्नगत राज्यलाभ वत् प्रमाण नहीं ॥२५॥
श्रु० जी० लोकरूढि सुविहितगछव्यवहारि प्रवर्त्तता सगोत्रीय आचार्यनी शाखि विना आचार्यादिक पद प्रमाण नहीं ॥२६॥
ए अठावीस ॥
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