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________________ વિજયમાનસૂરિકૃત પટ્ટક आचार्योपाध्यायादिक गीतार्थ मिला सर्वसुविहित संमति उत्सूत्र प्ररूपणा दोष निवारिओ ते समंध प्रसिद्ध छें माटि तपागछ सुविहित सद्देहेवो ॥१॥ Vol. II 1996 तथा गछाचारवृत्ति निशीथचूर्णिकल्पभाष्यादिकनें अनुसारि जघन्यथी निशीथपर्यन्त शास्त्रना कोविद थइ मायामृषावाद छाडी निःशल्यपणें प्रवचनमार्ग कहे ते मार्टि तपागच्छनी वर्त्तमानपदस्थ गीतार्थ पिण सुविहित सहवो ॥२॥ ૯૯ तथा कल्पभाष्य उत्तराध्ययन ठाणांग दशवैकालिक उपदेशमाला पंचाशकादिकने अनुसारि सुविहितपदस्थनी आज्ञा लोपी गच्छथी जुदा थइ स्वेच्छाई टोली करी प्रवर्ते अने सुविहितगच्छनां गीतार्थ उपरि मत्सर राखे, लोक आणि छता अछता दोष देखाडें एहवा पूर्वोक्तश्रुतें ररित द्रव्यलिंगी ते मार्गानुसारी न कहिइ तो गीतार्थ किम सद्दहि ||३|| तथा ठाणांग उत्तराध्ययनादिक श्रुतव्यवहार श्री आणंदविमलसूरिप्रसादितसामाचारीजल्पादिकजीत व्यवहारनें अनुसारि सुविहितगच्छने सहवासे वर्त्तमानगच्छनायकनी आज्ञाइं योग वही — दिगबंध प्रवर्तिते प्रमाण ||४|| तथा निशीथनंदिचूर्णि आवश्यक निर्युक्ति अनुसारि ऋद्धिगारवनें वर्शि तथाविध पदस्थगीतार्थनी आज्ञा लोपी पूर्वोक्तविधि विना योग वही सभा समक्ष आचारांगादिक वांचे ते अरिहंतादिकनो द्वादशांगीनो प्रत्यनीक यथाछंदो कहि जे माटि तीर्थंकर अदत्त गुरुअदत्तादिकनो दोष घणां संभवे छे ||५|| श्रुतव्यवहार पूर्वोक्त जीतव्यवहारइं वर्त्तमान गच्छनायकनी आज्ञा विना गीतार्थे पिण भव्यनें दीक्षा न देवी । कदाचित् गछाचार्य देशांतरहं होइ तो वेषपालये करावी चार अनी तुलना कराववा पिण योगपूर्वक सिद्धान्त न भणाववो ||६|| तथा आचारदिनकर प्रश्नोत्तरसमुच्चयादि कनई अनुसारि हैमव्याकरण व्याश्रयादिकसाहित्य उत्तराध्ययनादिसिद्धान्त भणाववा असमर्थ एहवा पन्यास गणेश बे उपरांत शिष्य निश्राइं न राखई आचार्य पिण अधिकनी आज्ञा नापें । तपागछमांहि आचार्यनीज दीक्षा होइं अने सुविहित गछांतरें आचार्यादिक पू माहि एकनी दीक्षा होइ । श्रुतव्यवहारिं तो गीतार्थने ज दीक्षानी अनुज्ञा छै ॥७॥ तथा श्री सोमसुंदरप्रसादित जल्पनें अनुसारि तथा महानिशीथ आचारांगादिकनें अनुसारि अगीतार्थसंयतविशेष गुणवंतगछने अयोगि शिथलसुविहितगछनी आज्ञादि स्वेछाई प्रवर्त्ते ते सामाचारीना प्रत्यनीक जाणिवा ॥८॥ उपदेशमालादशाश्रुतस्कंध निशीथभाष्य ज्ञातादिकनें अनुसारिं गुरुनी आज्ञाइं चोमासुं रहे विहारादिक करे अन्यथा सामाचारी माथा सूनीमाटि गुरु अदत्तादिक दोष संभवे जे माटिं व्यवहारभाष्यादिकने अनुसारिं स्वेदेशानुगतवाणिज्यादिककर्म साक्षिराजानी परिपंचाचारनो साक्षि सदाचार्य छ । अत एव छ मास उपरांत आचार्यशून्यगछनी मर्यादा अप्रमाण थाय एहवो वृद्धवाद संभलाइ छे ॥९॥ कल्पभाष्य दशवैकालिक भगवती पंचाशक गछाचारपन्नादिकने अनुसारि स्वतः परतः शुद्ध प्ररूपक ते सद्गुरु जाणिवो ॥१०॥ आवश्यक नियुक्तिनें अनुसारिं सुविहित वृद्ध गीतार्थने योगिं पाक्खी चोमासी संवत्सरीखामणां करवांज । अन्यथा सामान्य शुद्धि न थाई पडिकमणुं पिण अप्रमाण थाई । जे माटि व्यवहार सूत्रादिकनें अनुसारि आचार्यादिकने अयोगि स्थापनाचार्य आगलि आलोचना प्रमाण होइ ॥ ११ ॥ अष्टकवृत्ति विशेषावश्यकभाष्यादिकने अनुसारिं वर्त्तमान पंचाचार्यमांहि थापनाचार्यनइ विषई मुख्यवृत्ति गछाचार्यनी स्थापना संभविइ छइ पछे गीतार्थ कहे ते प्रमाण ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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