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________________ महावीर और अहिंसा - लता राजेंद्र कांकरिया “धम्मो मंगल मुक्किट्ठमं, अहिंसा संजमो वचन और काया से किसी को बाधा न पहुंचाना महावीर ने जब जीने की इच्छा त्याग दी उसी तवों यही सच मानो तो अहिंसा है। दिन वे सब छोडकर महल, कुटूंब, परिवार, देवावि तं नमस्संति, जस्स धम्मो मन में हिंसा की भावना क्यों निर्माण होती धन, धान्य, राजपाट इनका त्याग करके घर से सयामणो"। है? हिंसक भावना जन्म से ही क्यों चिपकी है? चल पडे और नीले आकाश के नीचे जाकर __धर्म सब मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है। अहिंसा, हमारे मन का रोम रोम हिंसक भावना से क्यों खडे हो गये और मन में निश्चय किया कि मैं संयम और तपरुपी धर्म ऐसे धर्म में लीन लिप्त है? इसका एक ही कारण है जीने की निसहाय प्रतिकार रहित होकर कही भी फिरूंगा रहनेवालों को भगवान भी नमस्कार करते है। इच्छा। हमारे रोम रोम में जीने की इच्छा भरी चाहे जैसी परिस्थिती आये अपनी रक्षा का कोई अहिंसा याने क्या? अहिंसा का मतलब हुई है। यही हमारी हिंसक वृत्ती का मूल है। कुछ उपाय नही करूंगा। समता से सहन करूंगा। जीवनतृष्णा का त्याग। अहिंसा याने अपरिग्रह भी हो मगर हम जीवन जीने को उत्सुक है। हमारे जीवनतृष्णा के त्याग से महावीर अहिंसावादी अहंकार का विनाश, अहिंसा याने अनेकांत, सामने कोई ध्येय नही है। कुछ भविष्य नहीं है। हो गये। अपना अस्तित्व किसी के लिए बाधक अनाग्रह। रूप, यौवन, धन, आरोग्य, प्रतिष्ठा, अपनापन, ना बने। मन, वचन, काया से किसी के लिए भ. ने जितना बल अहिंसा पर दिया उतना सुख इसमें कुछ नही है सिर्फ राख है, नश्वर शरीर अडचण ना बने यही सच्ची अहिंसा है। अहंकार ही बल ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर दिया। भ. है फिर भी हम जीवन जीते है और जगते है। यानी हिंसा है। जो अहंकारी होता है वह किसी ने कहा जिसने ब्रह्मचर्य की साधना भ. महावीर कहते है जीवन तृष्णा यही का सुख नहीं देख सकता है। ऐसे समय में हमें (आराधना) कर ली उसने सब व्रतों की सब पापों का मूल है। जीने की इच्छा के कारण महावीर की अहिंसा याद आती है। अपने आराधना कर ली। मनुष्य कुछ भी करने को तत्पर है। अनेकों अस्तित्व की पहचान करके देना जैसे किसीने मन के अंदर जन्मा हुआ प्रत्येक विकार पाप करता है फिर भी अमर नहीं है। हमारी एकगाल पर मारा तो दुसरा आगे करना इसका हिंसा है। विषय विकार से खुद को बचाना ही मृत्यू अटल है। मतलब अहिंसा नही है वह तो मारनेवाले को अहिंसा है। यही सच्चा धर्म है। इस दृष्टि से भ. इसलिए जो मनुष्य जीवनतृष्णा छोडने को प्रत्युत्तर है। मारनेवाले का उपहास है। सत्याग्रह महावीर ने कहा है - "अहिंसा परमो धर्म"। तैयार है वही सच में अहिंसक है। जिसको जीने हिंसा है। देश में इतने वाद-विवाद चले वे सत्य धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है अहिंसा, संयम और तप का मोह नही है, जो स्वयं को बचाने के लिए के नही हैं मैं के वाद विवाद है। महावीर का धर्म के तीन अंग (भाग) है। अहिंसा धर्म का दुसरे के प्राण नही लेता और जिसको महावीर कहना है यह सुक्ष्म हिंसा है। यह विचार मेरा है। केंद्र बिंदु है। तप यह अहिंसा रूपी केंद्र का की अहिंसा का पालन करना मालूम है, पालता जब हम कहते है तब सत्य से दूर ही जाते है। गोलाकार है। तो संयम यह तप और अहिंसा है उसने जीवनतृष्णा को छोडना चाहिए। इसका इसलिए महावीर ने अनेकांतवाद का उपदेश को जोडनेवाला पुल है। उसी प्रकार जीव यह मतलब या नही की मनुष्य ने मरने की इच्छा दिया जो कि आज तक अन्य कोई धर्म प्रवर्तक शरीर और आत्मा को जोडनेवाला पुल है। रखनी चाहिए। यहां भी गलती हो सकती है। ने नही दिया है। कारण अहिंसा का इतना सूक्ष्म __अहिंसा धर्म का मुल है। अहिंसा लक्ष्य है मृत्यू को स्वीकार करना अहिंसा है। मृत्यू को विचार महावीर के सिवाय किसी ने नही किया और यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माध्यम तप महोत्सव के रूप में मनाओ। महावीर कहते थे है। जीवनतृष्णा का त्याग अहिंसा का विचार और संयम है। अहिंसा के अनेक रूप है। सिर्फ मृत्यू को स्वीकार करो इसलिए की मृत्यू का महावीर ने जीवसृष्टि की दृष्टि से किया है। तब प्राणीमात्र की रक्षा करना ही अहिंसा नही है। कोई महत्त्व नही है। हम जीवन को महत्त्व देते हैं उसमें से जीवनतृष्णा का त्याग यह तत्व फलित अहिंसा की बहुत सुक्ष्म व्याख्या है। अपना इसलिए मृत्यू को महत्व है। जीने की इच्छा हुआ है। अस्तित्व किसी के मार्ग में न आने देना। मन समाप्त होना ही मृत्यू का डर समाप्त होना है। भ. “मित्तिम सव्व भुवेसू" - सभी प्राणियों भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ । ५३
SR No.522651
Book TitleBhagawan Mahavir Smaranika 2009
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Sanglikar
PublisherJain Friends Pune
Publication Year2009
Total Pages84
LanguageMarathi
ClassificationMagazine, India_Marathi Bhagwan Mahavir Smaranika, & India
File Size4 MB
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