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भगवान महावीर का सन्देश आज के समय में सर्वथा उपयोगी है।
महावीर मानव थे, महामानव थे, पर हमने उन्हें भगवान बना दिया । उनके उपदेशों को जीवन में उतारनाथा पर हमने शास्त्रोंमें सजा दिया। उनकी मूर्ती मन-मन्दिर में सजानी थी, पर हमने उन्हें पाषाणी मंदिरोंमें बिठा दिया। उनका उपदेश आदरणीय अनुकरणीय था, पर हमने उन्हें केवळ वंदनीय बना दिया।
वर्धमान महावीर युग पुरुष हैं। उन्होंने आज से ढाईहजार वर्ष पहले इस धरापर आकर जीवन जीने की कला दी। महावीर बस महावीर हैं। पूरी मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसा महिमा मंडित व्यक्ति दूसरा नहीं हैं। महावीर ने जितनी हृदय की बीणा को बजाया और परम संगीत निकाला उतना और किसी ने नहीं। महावीर के माध्यम से जितनी आत्माएं जगी और भगवत्ता को उपलब्ध हुआ, उतनी और किसी के माध्यम से नहीं। महावीर सबके थे, सब महावीर के थे । महावीर की दृष्टि में अपना पराया जैसा कोई भेद नहीं था और ना ही अमीर-गरीब, ऊंचनीच, जाति-वर्गया वर्ण का भेद था। उन्होंने जातिवाद भाषावाद, ऊंच-नीचके दलदल से समाज को बाहर निकाला.
भगवान महावीर का जन्म सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए हुआ । महावीर का संदेश पूरी मानवता के लिए है। जैसे सूर्य चांद का प्रकाश सबके लिए है, आग सबकी रोटियां सेंकती है। पानी सबके गले की प्याय बुझाता है, वृक्ष की छाया सबके लिए है, वैसे ही महावीर का सन्देश सबके लिए है । महावीर के सिध्दान्त किसी वर्ग विशेष या काल विशेष के लिए नहीं है। उनके सिध्दांत या संदेश की उपयोगिता सार्वकालिक एवं सर्वदेशीय है। महापुरुष के उपदेश या सिध्दांत समय व स्थान की सीमा से परे कालातीत और सार्वदेशिक होते है ।
महावीर के उपदेश ढाई हजार वर्षों के बाद आज भी उतने ही उपयोगी है। इसलिए महावीर केवल जैनों के लिए ही नहीं. वे जन-जन के लिए है। भगवान महावीर धर्म तीथे के प्रवर्तक तो थे ही पर उनका धर्म वर्ग विशेष स्थान विशेष के लिए नहीं वरन् सार्वकालिक, सर्वांग और सार्वजनीन - सार्व लौकिक था। उन्होंने जो भी कुछ उपदेश में कहा- उसे पहले अपने जीवन में घटित किया अनुभूत किया इसीलिए महावीर व्यक्ति नहीं - संस्था है, समाज है, संघ है। उनके अलौकिक ज्ञान के पिछे अप्रतिहतकई वर्षोंकी लगातार शुद्ध साधना थी । इस साधना के लिए उनको किसी ने प्रेरित नहीं किया और न ही परिस्थितीयोंने बाध्य किया । इह लौकिक सारे सुखोंका- राज्य - वैभव. समृद्धि का बलिदान कर सिंह की तरह निर्भय - एकाकी अपने अभीष्ट की सिद्धी के लिए जीव और जगत के कल्याण की खोज के लिए वे सारे जन- परिजन के बीज से निकल पडे थे । लगातार साठे बारह वर्षतक अकेले कठोर साधना एवं तपस्या की।
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- साध्वी ज्ञानप्रभा 'सरल'
भगवान महावीर ने अनुभव किया कि अज्ञानता के कारण अपने कर्म से ही प्राणी संसार के जन्म-मृत्यु - दुःखों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। कर्म स्वयं अपनी आत्मा ने ही किये है - तो फल का भुगतान भी स्वयं के पुरुषार्थ से ही साधना सिद्धी की और आगे बढ़ती है।
भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ | १९
भगवान की साधना की शुरुआत की पहला ही दिन है । वे जंगल में ध्यान साधना में एकाकी खडे है । एक बिन्दु पर अपलक दृष्टि टिकाये। एक ग्वाल अपने बैल चराते हुए उधर आता है, उसी वक्त उसे कुछ जरूरी काम याद आने से महावीर को बैलोंकी निगाह रखनेका कहकर जाता है। महावीर तो अपने ध्यान में लगे हुए बैल भी चर चरते कहीं निकल गए। ग्वाला लौटकर आने के बाद अपने बैलोंके न पाकर गुस्से में आग बबूला होकर रस्सी से महावीर को पीटने लगा। परंतु धीर-गंभीर महावीर ने उफ् तक नहीं किया और उसी तरह अपनी साधना में अडिग खडे है । उसी वक्त स्वर्ग में इन्द्रका आसन कंपायमान होने से इन्द्र चलकर वहा आते है और ग्वाले को दंडित करना चाहते ही है कि इतनेमें महावीर अपना ध्यान पूर्ण कर ग्वाले को अज्ञानी ना समझ कहकर इन्द्र से छुडाते है, ग्वाला माफी मांगकर चला जाता है।
स्वर्गाधिपती इन्द्र भगवान महावीर से निवेदन करते है- "भंते । आपको अपने साधना काल में आगे अनेक कष्ट उपसर्ग आएंगे इसलिए आपके साधनाकाल तक मुझे आपकी सेवामें रहने दे।” महावीर ने जवाब दिया- "हे देवाधिपती ! न तो कभी ऐसा हुआ है. न होता है. न होगा कि किसीने दूसरों के सहारे मुक्ति प्राप्त की हो - स्वयं के पुरुषार्थ के बल पर ही साधना सिद्ध होती