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________________ प्रचुर तक हो सके अपनी प्रज्ञा के बल पर ही निर्णय में केवल शब्द, प्रधान शास्र शिव नहीं, अपितु “अप्पमाओ अमतपदं, पमाओ मच्चुनो को आधारित रखना चाहिए। अन्तिम प्रकाश शव ही रह जाता है। शव अर्थात मृत, मुर्दा पदं।" धम्मपद, २,१. उसीसे मिलेगा। शास्रों से भी निर्णय करेंगे, मृत को चिपटाये रहने से अन्ततः जीवित भी यह अप्रमाद क्या है? प्रमाद का अभाव तब भी प्रज्ञा की अपेक्षा तो रहेगी ही। बिना मृत ही हो जाता है। मृत की उपासना में प्राणवान होकर जब प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होती प्रज्ञा के शास्र मूक है। वे स्वयं क्या करेंगे। इस ऊर्जा कैसे प्राप्त हो सकती है? हैं, तब अप्रमाद की भूमिका प्राप्त होती है। सम्बन्ध में एक प्राचीन मनीषी ने कहा है - “शास्रं सुचिन्तितं ग्राह्य, चिन्तनाद्धि और, इसी में साधक अमृतत्व की उपलब्धि "जिस व्यक्ति को अपनी स्वयं की प्रज्ञा नहीं शिवायते। करता है। है, उसके लिए शास्र भी व्यर्थ है। शास्र उसका अन्यथा के वलं शब्द - प्रधानं तु भारतीय धर्म और दर्शन में ऋषि शब्द का क्या मार्गदर्शन कर सकता है? अन्धा व्यक्ति शवायते॥" प्रचुर प्रयोग हुआ है। स्वयं भगवान् महावीर यदि अच्छे से अच्छा दर्पण लेकर अपना मूख- भारतीय चिन्तन की चिन्तन धारा से को भी परम महर्षि कहा गया हैमण्डल देखना चाहे, तो क्या देख सकता है- प्रज्ञावाद का नाद अनुगुंजित है। बौद्ध साहित्य “अणुत्तरगं परमं महेसी।" सूत्रकृतांग, में तो प्रज्ञा - पारमिता का विस्तार से वर्णन है १,६,१७. “यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्रं तस्य ही। जब तक प्रज्ञा-पारमिता को नहीं प्राप्त कर अन्यत्र भी अनेक प्रज्ञावान मुनियों के लिए करोति किम्। लेता है, तब तक वह बुद्धत्व को नहीं प्राप्त हो ऋषि शब्द का प्रयोग हुआ है। हरिकेशबल लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पण: किं सकता। जैन-संस्कृति में भी प्रज्ञा पर ही अनेक मुनि की स्तुति करते हुए कहा गया - करिष्यति।" स्थानों में महत्त्वपूर्ण बल दिया गया है। स्वयं "महप्पसाया इसिणो हवन्ति ।' शास्र के लिए प्राकृत में 'सुत्त' शब्द का भगवान् महावीर के लिए भी प्रज्ञा के विशेषण उत्तराध्ययन, १२,३१. प्रयोग किया गया है। उसके संस्कृत रूपान्तर प्रयुक्त किए गए है। बहुत दूर न जाएँ, तो आप जानते हैं, ऋषि शब्द का क्या अर्थ अनेक प्रकार के हैं, उनमें सुत्त शब्द का एक सुत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वीरथुई है? ऋषि शब्द का अर्थ है- सत्य का साक्षात्संस्कृत रूपांतर सुप्त भी होता हैं। यह रूपांतर नामक अध्ययन हमारे समक्ष है। उसमें गणधर द्रष्टा । ऋषि सत्य का श्रोता कदापि नहीं होता, अच्छी तरह विचारणीय है। सुत्तं अर्थात् सुप्त सुधर्मा कहते है प्रत्युत् अपने अन्तःस्फूर्त प्रज्ञा के द्वारा सत्य है, यानी सोया हुआ है। सोया हुआ कार्यकारी से भूइपन्ने - वे महान् प्रज्ञावाले हैं। का द्रष्टा होता है। कोष-साहित्य में ऋषि का नहीं होता है। उसके भाव को एवं परमार्थ को कासव आसुपन्ने - महावीर साक्षात् सत्य अर्थ यही किया गया है। वह अन्तःस्फूर्त कवि, जगाना होता है और वह जागता है, चिन्तन के द्रष्टा आसुप्रज्ञावाले हैं। मुनि, मन्त्र-द्रष्टा और प्रकाश की किरण है। एवं मनन से अर्थात् मानव की प्रज्ञा ही उस से पन्नया अक्खय सागरे वा - वे प्रज्ञा से कवि शब्द का अर्थ काव्य का रचयिता ही सुप्त शास्र को जगाती है। उसके अभाव में वह अक्षय सागर के समान हैं। नहीं, अपितु ईश्वर-भगवान् भी होता है। इस केवल शब्द है, और कुछ भी नहीं। अत: अन्यत्र भी आगम साहित्य में प्रज्ञा शब्द सम्बन्ध में ईशोपनिषद् कहता हैप्राचीन विचारकों ने शास्र के साथ भी तर्क का प्रयोग निर्मल ज्ञान-चेतना के लिए प्रयुक्त “कविर्मनीषिपरिभू स्वयंभू" को संयोजित किया है। संयोजित ही नहीं, तर्क हैं। यह प्रज्ञा किसी शास्र आदि के आधार पर उक्त विवेचन का सार यही है कि सत्य की को प्रधानता दी गई है। प्राचीन मनीषी कहते निर्मित नहीं होती है। यह ज्ञानावरण कर्म के उपलब्धि के लिए मानव की अपनी स्वयं प्रज्ञा है कि, जो चिन्तक तर्क से अनुसंधान करता क्षय या क्षयोपशम से अन्त:स्फूर्त ज्ञान-ज्योति ही हेतु है। प्रज्ञा के अभाव में व्यक्ति, समाज, है, वही धर्म के तत्व को जान सकता है, अन्य होती है। राष्ट्र एवं धर्म आदि सब तमसाच्छन्न हो जाते नहीं। युक्ति-हीन विचार से तो धर्म की हानि वस्तुत: इसी के द्वारा सत्य का साक्षात्कार हैं। और इसी तमसाच्छन्न स्थिती में से अन्धही होती है। होता है। इसके अभाव में कैसा भी कोई गुरू मान्यताएं एवं अन्ध-विश्वास जन्म लेते हैं, “यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्मे वेद नेतरः। हो, और कैसा भी कोई शास्र हो, कुछ नहीं जो अन्ततः मानव जाति की सर्वोत्कृष्टता के युक्तिहीनविचारे तु, धर्महानिः प्रजायते॥" कर सकता। इसलिए भारत का साधक निरन्तर सर्वस्व संहारक हो जाते हैं। प्रस्तुत संदर्भ में मेरा भी एक श्लोक है, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रार्थना सूत्र की अतीत के इतिहास में जब हम पहुँचते हैं, जिसका अभिप्राय है कि शास्रों को अच्छी रट लगाए रहता है। अज्ञान ही तमस् है और तो देखते हैं कि प्रज्ञा के अभाव में मानव ने तरह स्पष्टतया चिन्तन करके ही ग्रहण करना तमस् ही मृत्यु है। बुद्ध इसे प्रमाद शब्द के द्वारा कितने भयंकर अनर्थ किए हैं। हजारों ही नहीं, चाहिए। चिन्तन के द्वारा ही शास्र शिवत्व की अभिव्यक्त करते है। कहते है - प्रमाद मृत्यु है लाखों महिलाएं, पति के मृत्यु पर पतिव्रता उपलब्धि का हेतु होता है। चिन्तन के अभाव और अप्रमाद अमृत है एवं सतीत्व की गरिमा के नाम पर पति के शव १४ । भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९
SR No.522651
Book TitleBhagawan Mahavir Smaranika 2009
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Sanglikar
PublisherJain Friends Pune
Publication Year2009
Total Pages84
LanguageMarathi
ClassificationMagazine, India_Marathi Bhagwan Mahavir Smaranika, & India
File Size4 MB
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