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'सगोत्र अगोत्र में प्रवेश नहीं पा सकता। इसलिए मैं कहता हूँ तुम अगोत्र हो, गोत्रातीत हो।'
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भगवान् ने निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा- 'आर्यो! निर्ग्रन्थ को प्रज्ञा, तप, गोत्र और आजीविका का मद नहीं करना चाहिए। जो इनका मद नहीं करता, वही सब गोत्रों से अतीत होकर अगोत्र - गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है। '
३. भगवान् के संघ में सब गोत्रों के व्यक्ति थे। सब गोत्रों के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे। उस समय नाम और गोत्र से सम्बोधित करने की प्रथा थी। उच्च गोत्र से सम्बोधित होनेवालों का अहं जागृत होता । नीच गोत्र से सम्बोधित व्यक्तियों में हीन भावना उत्पन्न होती। अहं और हीनता - ये दोनों विषमता के कीर्तिस्तम्भ हैं। भगवान् को इनका अस्तित्व पसन्द नहीं था। भगवान् ने एक बार निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा- 'आर्यों! मेरी आज्ञा है कि कोई निर्ग्रन्थ किसी को गोत्र से सम्बोधित न करे।'
४. जैसे-जैसे भगवान् का समता का आन्दोलन बल पकड़ता गया, वैसे-वैसे जातीयता के जहरीले दांत काटने को आकुल होते गए । विषमता के रंगमंच पर नए-नए अभिनय शुरु हुए। ईश्वरीय सत्ता की दुहाई से समता के स्वर को क्षीण करने का प्रयत्न होने लगा ।
इधर मानवीय सत्ता के समर्थक सभी श्रमण सक्रिय हो गए। भगवान् बुद्ध का स्वर भी पूरी शक्ति से गूंजने लगा भ्रमणों का स्वर विषमता से व्यथित मानस को वर्षा की पहली फुहार जैसा लगा । इसका स्वागत उच्च गोत्रीय लोगों ने भी किया। क्षत्रिय इस आंदोलन में पहले से ही सम्मिलित थे । ब्राह्मण और वैश्य भी इसमें सम्मिलित होने लगे। यह धर्म का आंदोलन एक अर्थ में जन आंदोलन बन गया। इसे व्यापक स्तर पर चलाना भिक्षुओं का काम था। भगवान् बडी सतर्कता से उनके संस्कारों को मांजते गए। एक बार कुछ मुनियों में यह चर्चा चली
कि मुनि होने पर शरीर नहीं छूटता, तब गोत्र कैसे छूट सकता है? यह बात भगवान् तक पहुंची। तब भगवान् मुनि - कुल को बुलाकर कहा 'आर्यों! तुमने सर्प की केंचुली को देखा है?"
नौकर अब उनका साधर्मिक भाई बन गया।
भगवान् ने अपने संघ को एक समतासूत्र दिया। वह हजारों-हजारों कंठों से मुखरित होता रहा। उसने असंख्य लोगों के 'अहं' का परिशोधन किया। वह सूत्र है
है?'
'यह जीव अनेक बार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है। अतः न कोई किसी से हीन है और न कोई अतिरिक्त। यह जीव 'भंते! केंचुली आने पर सर्प अन्धा हो अनेक बार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव जाता है?' कर चुका है। यह जान लेने पर कौन 'आर्यो! केंचुली के छूट जाने पर क्या गोत्रवादी होगा और कौन मानवादी ।' होता हैं?'
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'हां, भंते! देखा है।'
'आर्यों! तुम जानते हो, उससे क्या होता
'भंते! वह देखने लग जाता है।' 'आर्यों! यह गोत्र मनुष्य के शरीर पर केंचुली है। इससे मनुष्य अंधा हो जाता है। इसके छूटने पर ही वह देख सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सर्प जैसे केंचुली को छोड देता हैं, वैसे ही मुनि गोत्र को छोड दे। वह गोत्र का मद न करे। किसी का तिरस्कार न करे ।'
भगवान् ने अपने संघ में समता का बीज बोया, उसे सींचा, अंकुरित किया, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया ।
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भगवान् ने समता के प्रति प्रगाढ आस्था उत्पन्न की। अतः उसकी ध्वनि सब दिशाओं में प्रतिध्वनित होने लगी।
जयघोष मुनि घुमते-घूमते वाराणसी में पहुंचे। उन्हें पता चला कि विजयघोष यज्ञ कर रहा है। वे विजयघोष की यज्ञशाला में गए। यज्ञ और जातिवाद का अहिंसक ढंग से प्रतिवाद करना महावीर के शिष्यों का कार्यक्रम बन गया था। इस कार्यक्रम में ब्राह्मण मुनि काफी रस ले रहे थे। जयघोष जाति से ब्राह्मण थे । विजयघोष भी ब्राह्मण था। एक यज्ञ का प्रतिकर्ता और दूसरा उसका कर्ता । एक जातीवाद का विघटक और दूसरा उसका समर्थका
५. भगवान् के संघ में अभिवादन की एक निश्चित व्यवस्था थी। उसके अनुसार दीक्षा पर्याय में छोटे मुनि को दीक्षा - ज्येष्ठ मुनि का अभिवादन करना होता था। एक मुनि के सामने यह व्यवस्था समस्या बन गई । वह राज्य को छोडकर मुनि बना था । उसका नौकर पहले ही मुनि बन चुका था । राजर्षि की आंखों पर मद का आवरण आ गया। उसने उस नौकर मुनि का अभिवादन नहीं किया। यह बात भगवान् तक पहुंची भगवान् ने मुनिपरिषद को आमंत्रित कर कहा, 'सामाजिक व्यवस्था में कोई सार्वभौम सम्राट होता है, कोई नौकर और कोई नौकर का भी नौकर वे बाहरी उपाधियों से मुक्त होकर उस लोक में पहुंच जाते है, जहां सम हैं, कोई विषम नहीं है। फिर अपने दीक्षा - ज्येष्ठ का अभिवादन करने में किसी को लज्जा का अनुभव नहीं होना चाहिए । सम्राट और नोकर होने की विस्मृति होने पर ही आत्मा में समता प्रतिष्ठित हो सकती है।'
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राजर्षि का अहं विलीन हो गया। उनका
१० | भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९
श्रमण और वैदिक ये दो जातियां नहीं हैं ये दोनों एक ही जाति वृक्ष की दो विशाल शाखाएं है। उनका भेद जातीय नहीं किंतु सैद्धान्तिक है। श्रमणधारा का नेतृत्व क्षत्रिय कर रहे थे और वैदिक धारा का नेतृत्व ब्राह्मण। फिर भी बहुत सारे ब्राह्मण श्रमण धारा में चल रहे थे और बहुत सारे क्षत्रिय ब्राह्मणधारा में। उस समय धर्म परिवर्तन व्यक्तिगत प्रश्न था । उसका व्यापक प्रभाव नहीं होता था। यदि धर्म परिवर्तन का अर्थ जाति परिवर्तन होता तो समस्या बहुत गम्भीर बन जाती। किंतु एकही भारतीय जाति के लोग अनेक धर्मो का अनुगमन कर रहे थे,