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________________ 87 बौद्धन्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप संदिग्धासिद्ध-जहाँ हेतु स्वयं असिद्ध हो अथवा उसके आश्रय में सन्देह हो वहाँ संदिग्धासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है।' स्वयं संदिग्धासिद्ध-जहाँ धूम का वाष्पादिरूप से सन्देह होता है, अर्थात् यह धूम है अथवा वाष्प है ऐसा सन्देह होता है, वहाँ वह हेतु स्वयं संदिग्धासिद्ध कहलाता है । * संदिग्धासिक-जहाँ हेतु के आश्रय के विषय में सन्देह हो, वहां आश्रय सन्दिग्धासिद्ध हेत्वाभास होता है। जैसे इस निकुंज में मयूर है । मयूर की ध्वनि होने से जहाँ निरन्तर बहुत निकुंज है वहाँ यह भ्रम उत्पन्न होता है कि उस निकुंज से मयूर ध्वनि आ रही है अथवा इस निकुंज से। ऐसे स्थल में आश्रय के विषय में सन्देह होने के कारण आश्रय सन्दिग्धासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है। धमि-असिद्ध, अथवा आधयासिद्ध-जहाँ हेतु का आश्रय ही असिद्ध होता है वहाँ आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होता है। जैसे आत्मा सर्वगत है, क्योंकि उसके सुखादि गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है। यहाँ बौद्ध को आत्मा ही सिद्ध नहीं है तब सर्वत्र उसके गुणों की उपलब्धि कैसे सिद्ध हो सकती है । ___ इस प्रकार धर्मी से सम्बद्ध एकरूप (पक्षधर्मत्व) के असिद्ध होने पर अथवा उसमें सन्देह होने पर असिद्ध हेत्वाभास होता है। अनैकान्तिक हेत्वाभास विपक्षासत्त्व नामक एक रूप की असिद्धि होने पर अथवा उसमें सन्देह होने पर अनेकान्तिक हेत्वाभास होता है। जिससे न साध्य का निश्चय होता है और न विपर्यय का, वह अनैकान्तिक है। जैसे शब्द में अनित्यत्वादि धर्म सिद्ध करने में प्रमेयत्वादि हेतु सपक्ष और विपक्ष में सर्वत्र अथवा एक देश में रहने के कारण अनैकान्तिक होते हैं । धर्मोतरकृत न्यायबिन्दु टीका में इसके चार भेद बतलाये गये है-१. सपक्षविपक्षव्यापी, २. सपक्षकदेशवृत्ति-विपक्षव्यापी, ३. विपक्षकदेशवृत्तिसपक्षव्यापी और ४. उभयकदेशवृत्ति । १. यथा वाष्पादिभावेन सन्दिह्यमानो भूतसंघातोऽग्निसिद्धावुपदिश्यमानः संदिग्धा सिद्धः । न्यायबि० पृ० ७० २. यथेह निकुंजे मयूरः केकायितादिति तदापातदेशविभ्रमे । न्यायबि० पृ० ७० । ३. धर्म्यसिद्धावप्यसिद्धो यथा सर्वगत आत्मेति साध्ये सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम् । -न्यायबि० पृ० ७० ४. तथैकस्य रूपस्यासपक्षेऽसत्त्वस्यासिद्धावनैकान्तिको हेत्वाभासः । तथाऽस्यैव रूपस्य सन्देहेऽप्यनैकान्तिक एव । यथा शब्दस्यानित्यत्वादिके धर्म साध्ये प्रमेयत्वादिको धर्मः सपक्षविपक्षयोः सर्वत्रैकदेशे वा वर्तमानः । न्यायबि० पृ० ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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