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________________ 86 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 हेत्वाभास का स्वरूप __ हेतु के तीन रूपों में से किसी एक रूप या दो रूपों के न कहने पर हेत्वाभास होता है। केवल हेतुरूपों के अकथन में ही हेत्वाभास नहीं होता किन्तु उनके कह देने पर भी असिद्धि या सन्देह होने पर भी हेत्वाभास होता है ।' असिद्ध हेत्वाभास धर्मी से सम्बद्ध रूप अर्थात् पक्षधर्मत्व के असिद्ध होने पर अथवा उसमें सन्देह होने पर वादी और प्रतिवादी को असिद्ध हेत्वाभास होता है । असिद्ध होने के कारण ही यह न तो साध्य की प्रतिपत्ति का कारण होता है, न विरुद्ध की प्रतिपत्ति का कारण होता है और न संशय का कारण होता है। इसके उभयासिद्ध, प्रतिवादि-असिद्ध, वादि-असिद्ध, संदिग्धासिद्ध, आश्रयणासिद्ध, धमि-असिद्ध आदि कई भेद होते हैं । उभयासिख-जो हेतुवादी और प्रतिवादी दोनों को असिद्ध होता है वह उभयासिद्ध है। जैसे शब्द को अनित्य सिद्ध करने में चाक्षुषत्व हेतु उभयासिद्ध है। क्योंकि वादी और प्रतिवादी दोनों ही शब्द को चाक्षुष नहीं मानते हैं । प्रतिवादि-असिद्ध-जो हेतु प्रतिवादी को असिद्ध होता है वह प्रतिवादि-असिद्ध है। जैसे वृक्ष चेतन है क्योंकि उनकी त्वचा का अपहरण करने पर उनका मरण हो जाता है । यहाँ वादी दिगम्बर है और प्रतिवादी बौद्ध है । बौद्धों ने विज्ञान, इन्द्रिय और आयु के निरोध को मरण माना है और ऐसा मरण वृक्षों में असम्भव है । वादी-असिद्ध-जो हेतुवादी को असिद्ध होता वह वादी-असिद्ध है ।" जैसे यदि सांख्य ऐसा कहता है कि सुखादि अचेतन है, उत्पत्ति वाले होने से, अथवा अनित्य होने से, तो यहाँ उत्पत्तिमत्त्व अथवा अनित्यत्व हेतु स्वयं वादो सांख्य को असिद्ध है। पर के लिए हेतु दिया जाता है। बौद्ध के यहाँ असत् का उत्पाद उत्पत्तिमत्त्व है और सत् का निरन्वय विनाश अनित्यत्व है। किन्तु ये दोनों ही सांख्य को असिद्ध हैं। सांख्य तो आविर्भाव को उत्पत्ति और तिरोभाव को विनाश मानता है। १. तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुक्ती साधनाभासः। उक्तावप्यसिद्धौ संदेहे वा । साधनाभासः सदृशं साधनस्य न साधनमित्यर्थः । न्यायबि० पृ० ६७ २. एकस्य रूपस्य धर्मिसम्बन्धस्यासिद्धौ संदेहे चासिद्धो हेत्वाभासः । न्यायबि पृ० ६७ ३. अनित्यः शब्द इति साध्ये चाक्षुषत्वमुभयासिद्धम् । न्यायबि० पृ० ६८ ४. चेतनास्तरव इति साध्ये सर्वत्वगपहरणे मरणं प्रतिवाद्यसिद्धं विज्ञानेन्द्रियायुनिरोधलक्षणस्य मरणस्यानेनाभ्युपगमात् तस्य च तरुष्वसंभवात् । -न्यायबि० पृ० ६८ ५. अचेतनाः सुखादय इति साध्ये उत्पत्तिमत्त्वमनित्यवं वा सांख्यस्य स्वयं वादिनो:सिद्धम् । न्यायबि० पृ० ६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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