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________________ 88 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 शब्द को अनित्य सिद्ध करने में प्रमेयत्व हेतु सपक्ष घटादि में और विपक्ष आकाशादि में रहने के कारण सपक्षविपक्षव्यापी है । अन्य तीन के उदाहरण न्याय प्रवेश के समान ही है । संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक - जिस हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति में सन्देह हो वह संदिग्ध - विपक्षव्यावृत्तिक अनैकान्तिक है । जैसे यह पुरुष असर्वज्ञ है अथवा रागादिमान् है ऐसा सिद्ध करने में वक्तृत्व हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक है । क्योंकि विपक्ष अर्थात् सर्वज्ञ और वीतराग पुरुष से वक्तृत्व की व्यावृत्ति संदिग्ध है । सर्वज्ञ और वीतराग में भी वक्तृत्व रह सकता है । वक्तृत्व और सर्वज्ञत्व में कोई विरोध भी नहीं है । क्योंकि पदार्थों में दो प्रकार का विरोध देखा जाता है— सहानवस्थानलक्षणविरोध और परस्परपरिहारस्थितलक्षणविरोध । वक्तृत्व और सर्वज्ञत्व में शीत और उष्ण स्पर्श की तरह न तो सहानवस्थानलक्षणविरोध है और न किसी वस्तु के भाव और अभाव की तरह परस्पर परिहारस्थितलक्षण विरोध है । इसी प्रकार वचन और रागादि में कार्यकारणभाव भी सिद्ध नहीं है, जिससे वचन के द्वारा रागादि का अनुमान किया जाय । अतः वक्तृत्वादि हेतु संदिग्धविपक्ष व्यावृत्तिक होने से किसी पुरुष में असर्वज्ञत्व अथवा रागादिमत्त्व की सिद्धि नहीं कर सकते हैं । सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व इन रूपों में से एक के असिद्ध होने पर और दूसरे में सन्देह होने पर भी अनैकान्तिक दोष होता है ।" जैसे यह पुरुष वीतराग अथवा सर्वज्ञ है, वक्ता होने से । यहाँ वक्तृत्व हेतु का व्यतिरेक असिद्ध है क्योंकि सरागी और असर्वज्ञ पुरुष में वक्तृत्व देखा जाता है और इस हेतु का अन्वय सन्दिग्ध है । क्योंकि सर्वज्ञ और वीतराग को अतीन्द्रिय होने से वहाँ वक्तृत्व का सत्त्व है या असत्त्व यह निश्चय करना कठिन है । अतः इस विषय में सन्देह बना रहता है कि वक्ता होने से कोई सर्वज्ञ है या असर्वज्ञ । उक्त दोनों रूपों के विषय में सन्देह होने पर भी अनैकान्तिक दोष होता है जैसे जीव का शरीर सात्मक है, प्राणादिमान् होने से । यहाँ यह विचारणीय है कि सात्मक और निरात्मक से अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु है नहीं जहाँ प्राणादि रहता हो । और इन दोनों में से किसी एक में प्राणादि के रहने का निश्चय नहीं है । अतः सात्मक अथवा निरात्मक वस्तु में न व्यतिरेक सिद्ध होता है । यही कारण है कि कारण यह असाधारण अनैकान्तिक है । जिस १. द्वयो रूपयोरेकस्यासिद्धावपरस्य च सन्देहेऽनैकान्तिकः । यथा बीतरागः कश्चित् सर्वज्ञो वा वक्तृत्वादिति । व्यतिरेकोऽत्रासिद्धः । संदिग्धोऽन्वयः । सर्वज्ञवीतरागयोविप्रकर्षाद्वचनादेस्तत्र सत्त्वमसत्त्वं वा संदिग्धम् । न्यायवि० पृ० ८१ । तो प्राणादि का अन्वय सिद्ध होता है और न अन्वय और व्यतिरेक दोनों में सन्देह होने के २. अनयोरेव द्वयो रूपयोः सन्देहेऽनैकान्तिकः । यथा सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादि मत्त्वादिति । - न्यायबि० पृ० ८१ । ३. अत एवान्वयव्यतिरेकयोः सन्देहादनैकान्तिकः । साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् । - न्यायवि० पृ० ८५ । अनुमानविषयेऽसंभवात् । न हि संभवोऽस्ति कार्यस्वभावयोरुक्तलक्षणयोरनुपलम्भस्य च विरुद्धतायाः । न चान्योऽव्यभिचारी । - न्यायबि० पृ० ८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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