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________________ न्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप 83 होता है, सपक्षसत्त्व के निश्चय से वह विरुद्ध नहीं होता है और विपक्षासत्त्व के निश्चय से अनैकान्तिक का निराकरण हो जाता है । और जिन संयोगी, समवायी, एकार्थसमवायी आदि पराभिमत हेतुओं में तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप अविनाभाव नहीं है उनमें साध्य के साथ व्यभिचार संभव होने से वे हेतु नहीं हैं अर्थात् हेत्वाभास हैं । कहा भी है तोस्त्रिष्वपि रूपेषु निश्चयस्तेन वर्णितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥ प्रमाणवा० ३।१५ योग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः । न ते हेतव इत्युक्तं व्यभिचारस्य संभवात् ॥ प्रमाणवा० ४।२०७ न्यायदर्शन में हेतु के पाँच रूप माने गये हैं, इसलिए वहाँ मूल में पाँच हेत्वाभास हैं । पाँच रूपों के नाम ये हैं— पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, असत्प्रतिपक्षस्व और अबाधितविषयत्व | किन्तु बौद्धदर्शन में हेतु के तीन रूप माने गये हैं, इसलिए वहाँ मूल में ही तीन ही हेत्वाभास हैं । न्यायप्रवेश २. अन्यतरा सिद्ध ३ संदिग्धासिद्ध और ४ आश्रयासिद्ध | असिद्ध हेत्वाभास के चार भेद बतलाये गये हैं - १. उभयासिद्ध, उभयासिद्ध - शब्द को अनित्य सिद्ध करने में चाक्षुषत्व हेतु उभयासिद्ध है । अर्थात् वादी और प्रतिवादी दोनों ही शब्द को चाक्षुष नहीं मानते हैं । Jain Education International अन्यतरासिद्ध- जो हेतुवादी और प्रतिवादी में से किसी एक को असिद्ध होता है वह अन्यतरसिद्ध है । जैसे किसी ने मीमांसक से कहा कि शब्द अनित्य है, कृतक होने से । यहाँ कृतकत्व हेतु प्रतिवादी मीमांसक को असिद्ध है, क्योंकि मीमांसक शब्द को अभिव्यक्ति मानता है, उत्पत्ति नहीं । संदिग्धासिद्ध-- जहाँ स्वयं हेतु के विषय में संदेह हो वहाँ वह हेतु संदिग्धासिद्ध कहलाता है । आश्रयासिद्ध- -जिस हेतु का आश्रय हो असिद्ध हो वह आश्रयासिद्ध कहलाता है । जैसे आकाश द्रव्य है, गुण का आश्रय होने से । यहाँ जो आकाश की सत्ता ही नहीं मानता है उसके लिए गुणाश्रयत्व हेतु आश्रयासिद्ध है । विरुद्ध हेत्वाभास जिस हेतु में सपक्षसत्त्व न हो अर्थात् जिस हेतु की व्याप्ति साध्य के साथ न होकर उसके विरुद्ध के साथ होती है वह विरुद्ध है । यह चार प्रकार का है - १. धर्मस्वरूपविपरीत साधन, २. धर्मविशेषविपरोतसाधन, ३. धर्मिस्वरूपविपरीतसाधन और ४. धर्मिविशेषविपरीतसाधन । धर्मस्वरूप विपरीत साधन शब्द नित्य है, कृतक होने से । यह धर्मस्वरूपविपरीतसाधन का उदाहरण है । यहाँ कृतकत्व हेतु से नित्यत्व की सिद्धि न होकर अनित्यत्व की ही सिद्धि होती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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