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न्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप
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होता है, सपक्षसत्त्व के निश्चय से वह विरुद्ध नहीं होता है और विपक्षासत्त्व के निश्चय से अनैकान्तिक का निराकरण हो जाता है । और जिन संयोगी, समवायी, एकार्थसमवायी आदि पराभिमत हेतुओं में तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप अविनाभाव नहीं है उनमें साध्य के साथ व्यभिचार संभव होने से वे हेतु नहीं हैं अर्थात् हेत्वाभास हैं । कहा भी है
तोस्त्रिष्वपि रूपेषु निश्चयस्तेन वर्णितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः
॥ प्रमाणवा० ३।१५
योग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः ।
न ते हेतव इत्युक्तं व्यभिचारस्य संभवात् ॥ प्रमाणवा० ४।२०७
न्यायदर्शन में हेतु के पाँच रूप माने गये हैं, इसलिए वहाँ मूल में पाँच हेत्वाभास हैं । पाँच रूपों के नाम ये हैं— पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, असत्प्रतिपक्षस्व और अबाधितविषयत्व | किन्तु बौद्धदर्शन में हेतु के तीन रूप माने गये हैं, इसलिए वहाँ मूल में ही तीन ही हेत्वाभास हैं ।
न्यायप्रवेश
२. अन्यतरा सिद्ध ३ संदिग्धासिद्ध और ४ आश्रयासिद्ध |
असिद्ध हेत्वाभास के चार भेद बतलाये गये हैं - १. उभयासिद्ध,
उभयासिद्ध - शब्द को अनित्य सिद्ध करने में चाक्षुषत्व हेतु उभयासिद्ध है । अर्थात् वादी और प्रतिवादी दोनों ही शब्द को चाक्षुष नहीं मानते हैं ।
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अन्यतरासिद्ध- जो हेतुवादी और प्रतिवादी में से किसी एक को असिद्ध होता है वह अन्यतरसिद्ध है । जैसे किसी ने मीमांसक से कहा कि शब्द अनित्य है, कृतक होने से । यहाँ कृतकत्व हेतु प्रतिवादी मीमांसक को असिद्ध है, क्योंकि मीमांसक शब्द को अभिव्यक्ति मानता है, उत्पत्ति नहीं ।
संदिग्धासिद्ध-- जहाँ स्वयं हेतु के विषय में संदेह हो वहाँ वह हेतु संदिग्धासिद्ध कहलाता है ।
आश्रयासिद्ध- -जिस हेतु का आश्रय हो असिद्ध हो वह आश्रयासिद्ध कहलाता है । जैसे आकाश द्रव्य है, गुण का आश्रय होने से । यहाँ जो आकाश की सत्ता ही नहीं मानता है उसके लिए गुणाश्रयत्व हेतु आश्रयासिद्ध है ।
विरुद्ध हेत्वाभास
जिस हेतु में सपक्षसत्त्व न हो अर्थात् जिस हेतु की व्याप्ति साध्य के साथ न होकर उसके विरुद्ध के साथ होती है वह विरुद्ध है । यह चार प्रकार का है - १. धर्मस्वरूपविपरीत साधन, २. धर्मविशेषविपरोतसाधन, ३. धर्मिस्वरूपविपरीतसाधन और ४. धर्मिविशेषविपरीतसाधन ।
धर्मस्वरूप विपरीत साधन शब्द नित्य है, कृतक होने से । यह धर्मस्वरूपविपरीतसाधन का उदाहरण है । यहाँ कृतकत्व हेतु से नित्यत्व की सिद्धि न होकर अनित्यत्व की ही सिद्धि होती है।
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