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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
धर्मविशेषविपरीतसाधन - चक्षुरादि इन्द्रियाँ पर (आत्मा) के लिए हैं, संघात होने से, शयन, आसन आदि की तरह। यह धर्मविशेषविपरीतसाधन का उदाहरण है । यहाँ परार्थ धर्म का विशेष है - असंहतपरार्थ । किन्तु यह हेतु संहत परार्थ की ही सिद्धि करता है । यह हेतु जिस प्रकार चक्षुरादि में पारार्थ्य की सिद्धि करता है उसी प्रकार शयन, आसन आदि दृष्टान्त के बल से आत्मा में संहत्व की भी सिद्धि करता है। क्योंकि इस हेतु का परार्थ तथा संहतत्व दोनों के साथ अव्यभिचार है । तब ऐसा भी कहा जा सकता है--' संहतपरार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वात्, शयनासनाद्यङ्गवत् । शयन, आसन आदि संहत ( कर, चरण, उरु, ग्रीवादि वाले) शरीर का ही उपकार करते हैं, असंहत का नहीं । उसी प्रकार चक्षुरादि भी संहत पर ( आत्मा ) का ही उपकार करते हैं ।
मिस्वरूपविपरीत साधन का उदाहरण-न द्रव्यं न कर्म न गुणो भावः, एकद्रव्यवत्त्वात्, गुणकर्मसु च भावात्, सामान्यविशेषवदिति । भाव अर्थात् पर सामान्य (सत्ता) न द्रव्य है, गुण है और न कर्म है, एक द्रव्य वाला होने से तथा गुण और कर्म में रहने से, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वरूप सामान्यविशेष की तरह ।
वैशेषिक मत में द्रव्य या तो अद्रव्यरूप होता है या द्रव्यरूप होता है । आकाश, काल, दिशा, आत्मा और परमाणु अद्रव्य द्रव्य हैं । अर्थात् ये द्रव्य किसी के आश्रित नहीं हैं । द्वणुक आदि स्कन्ध अनेक द्रव्य द्रव्य है । किन्तु एक द्रव्य कोई द्रव्य नहीं है और भाव एक द्रव्यवाला है । अतः द्रव्य लक्षण से विलक्षण होने के कारण यह द्रव्य नहीं है । गुण और कर्म में रहने के कारण भाव गुण और कर्म भी नहीं है । अतः इस हेतु से भाव में द्रव्यादि का प्रतिषेध सिद्ध होता है । किन्तु इस हेतु से जिस प्रकार भाव में द्रव्यादि का प्रतिषेध सिद्ध होता है उसी प्रकार अभाववत्त्व भी सिद्ध होता है । क्योंकि इस हेतु का दोनों के साथ अव्यभिचार है ।
धर्मिविशेषविपरीतसाधन का उदाहरण -- अयमेव हेतुरस्मिन्नेव पूर्वपक्षेऽस्यैव धर्मिणो यो विशेषः सत्प्रत्ययकर्तृत्वं नाम तद्विपरीतमसत्प्रत्यय कर्तृत्वमपि साधयति, उभयत्राव्यभिचारात् ।
पूर्वोक्त उदाहरण में धर्मी का विशेष है सत्प्रत्ययकर्तृत्व, उसके विपरीत असत्प्रत्ययकर्तृत्व को भी उक्त हेतु सिद्ध करता है । क्योंकि हेतु का दोनों के साथ अव्यभिचार हैं । अनैकान्तिक
जिस हेतु में विपक्षव्यावृत्ति नहीं
पायी जाती है वह अनैकान्तिक कहलाता है । इसके ६ भेद हैं-- (१) साधारण, (२) असाधारण, (३) सपक्षैकदेश वृत्तिविपक्षव्यापी, (४) विपक्षैकदेशवृत्तिसपक्षव्यापी, (५) उभयपक्षैकदेशवृत्ति और (६) विरुद्धाव्यभिचारी |
साधारण — जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहता है वह साधारण अनैकान्तिक है | जैसे शब्द नित्य है, प्रमेय होने से । यहाँ प्रमेयत्व हेतु अनित्य घट तथा नित्य आकाश में रहने के कारण संशय उत्पन्न करता है कि घट की तरह शब्द अनित्य है अथवा आकाश की तरह नित्य है ।
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