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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 या असत् हेतु को हेत्वाभास कहते हैं । इस निबन्ध में हेत्वाभासों के स्वरूप पर ही विचार करना है । 'हेतुवदाभासते इति हेत्वाभास: ' - अर्थात् वास्तव में जो हेतु तो नहीं है किन्तु हेतु की तरह मालूम पड़ता है वह हेत्वाभास कहलाता है । 'पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्वात्', इस अनुमान में धूमत्व हेतु है और 'शब्दोऽनित्यः प्रमेयत्वात्' यहाँ प्रमेयत्व हेत्वाभास है, फिर भी पञ्चम्यन्त होने से वह हेतु जैसा मालूम पड़ता है प्रमाणवार्तिक में हेतु और हेतु का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया हैपक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ।। ३ । १ 82 जो पक्ष का धर्म हो और उसके सिसाघयिषित अंश अर्थात् साध्य से व्याप्त समुदाय को पक्ष कहते हैं । किन्तु उसका एकदेश होने से यहीं धर्मी अर्थात् हेतु वह है हो । धर्मो और धर्म के को पक्ष कहा गया है | धूम पक्ष (पर्वत) का धर्म है और साध्यधर्म वह्नि व्याप्त है । यह व्यास दो प्रकार से होती है ' व्यापक का धर्म होने से तथा व्याप्य का धर्म होने से । व्याप्य के होने पर व्यापक का अवश्य होना यह अन्वय व्याप्ति है तथा व्यापक के होने पर ही व्याप्य का होना अर्थात् व्यापक के अभाव में व्याप्य का नहीं होना यह व्यतिरेक व्याप्ति है । तीन प्रकार का होता है । क्योंकि तथा अन्य संयोगी आदि हेतुओं में साथ हेतु का व्यभिचार न होना । यह हेतु स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धियों के भेद से अविनाभाव का नियम त्रिविध हेतु में ही पाया जाता है, उसका अभाव रहता है । अविनाभाव का अर्थ है साध्य के यही कारण है कि उक्त तीन प्रकार के हेतुओं से जो भिन्न है वह अविनाभाव से रहित होने के कारण हेत्वाभास है । अविनाभाव के होने पर ही हेतुपना होता है और अविनाभाव तादात्म्य तथा तदुत्पत्ति से रहित है वह हेत्वाभास है । कहा भी है कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमो ऽदर्शनान्न न दर्शनात् ॥ प्रमाणवा० ३।३१ । अर्थात् अविनाभाव का नियम कार्यकारणभाव अथवा स्वभाव से होता है, हेतु का विपक्ष में अदर्शन से अथवा सपक्ष में दर्शन से नहीं । हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव अवश्यंभावी होने के कारण हेतु के तीन रूपों का निश्चय आवश्यक है | पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व का निश्चय क्रमशः असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक का विपक्षी होता है । अर्थात् पक्षधर्मत्व के निश्चय से हेतु असिद्ध नहीं १. द्विविधा चेयं व्याप्तिः व्यापकव्याप्यधर्मतया । तत्र व्याप्येसति व्यापकस्यावश्यंभावस्तस्य व्याप्तिः । व्याप्यस्य च व्यापक एव सति भावो नाम तस्य व्याप्तिः । आभ्यां यथाक्रममन्वयव्यतिरेकावुक्तौ । व्याप्यसद्भावे व्यापकस्य सत्त्वनियमस्यान्वयरूपत्वात् । व्यापकभावे व्याप्याभावस्य च व्यतिरेकरूपत्वात् । प्रमाणवार्तिक-मनोरथनन्दि टीका, पृ० २५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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