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बौद्धन्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप
उदयचन्द्र जैन*
भारतीय दर्शनों में तत्त्वों अथवा प्रयोगों की सिद्धि के लिए प्रमाण की सत्ता अनिवार्य है । प्रमाण के बिना किसी भी तत्त्व की सिद्धि नहीं होती है । यही कारण है कि प्रत्येक दर्शन ने प्रमाण की सत्ता स्वीकार की है । 'मानाधीना हि मेयसिद्धिः' इत्यादि वचनों से प्रमाण की महत्ता का ज्ञान होता है । गौतमीय न्यायशास्त्र के प्रथम सूत्र में सर्वप्रथम प्रमाण शब्द का ही ग्रहण किया गया है । इसीलिये न्याय दर्शन को प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं प्रमाण के महत्त्व को लक्ष्य में रख कर ही बौद्धदर्शन में भी प्रमाणशास्त्र विषयक अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है । आचार्य दिग्नाग का प्रमाणसमुच्चय और धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु हेतुबिन्दु आदि ग्रन्य प्रमाणशास्त्र के उच्चकोटि के ग्रन्थ हैं, जिनके द्वारा प्रमाण का स्वरूप, संख्या, विषय और फल के विषय में व्यापक विचार किया गया है ।
चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य समस्त भारतीय दर्शनों ने अनुमान को प्रमाण माना है । क्योंकि अनेक परोक्ष अर्थों की प्रतिपत्ति अनुमान से ही होती है। अनुमान द्वारा परोक्ष अर्थ की सिद्धि करने के लिए साध्य और साधन में अविनाभाव सम्बन्ध होना आवश्यक है । पर्वत में धूम से वह्नि की सिद्धि तभी हो सकती है जब पहले हमको धूम और वह्नि में व्याप्ति का ज्ञान हो जाय । अर्थात् 'जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है', और 'जहाँ अग्नि नहीं होती है वहाँ धूम भी नहीं होता है, इस प्रकार का व्याप्तिज्ञान होना आवश्यक है ।
चार्वाक ने अनुमान को प्रमाण नहीं माना है किन्तु धर्मकीर्ति -
प्रमाणेतर सामान्य स्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥
इस श्लोक द्वारा चार्वाक के प्रति अनुमान प्रमाण की सिद्धि की है । 'प्रत्यक्ष प्रमाण है और अनुमान अप्रमाण है', 'दूसरे प्राणी में बुद्धि है', 'परलोक नहीं है', इन बातों की सिद्धि अनुमान प्रमाण के बिना नहीं हो सकती है । यहाँ क्रमशः स्वभावहेतुजन्य अनुमान, कार्यहेतुजन्य अनुमान और अनुपलब्धिहेतुजन्य अनुमान सिद्ध किया गया है । अतः चार्वाक को भी अनुमान प्रमाण मानना आवश्यक है। अनुमान के बिना उसका काम नहीं चल सकता है ।
हेत्वाभास का स्वरूप
अनुमान की उत्पत्ति में हेतु का है । किन्तु सम्यक् हेतु से ही अनुमान की
वही महत्त्व है जो उत्पत्ति होती है,
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प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में इन्द्रियों का असम्यक् हेतु से नहीं । असम्यक्
★ भू० पू० प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
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