________________
जैन धर्म में तप
75
स्वाध्याय तप का सभी तपों में विशेष स्थान है। इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए पं० आशाधरजो ने कहा है कि स्वाध्याय तप की सहायता से मुमुक्षु की तर्कशील बुद्धि का उत्कर्ष होता है। परमागम की परम्परा गतिशील होती है। मन, इन्द्रियाँ तथा चार संज्ञाओं (आहार, निद्रा, भय और मैथुन) की अभिलाषा का निरोध हो जाता है। संशय का छेदन तथा क्रोधादि चार प्रकार की कषायों का भेदन हो जाता है । संवेग तथा तप में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। सभी प्रकार के अतिचार दूर हो जाते हैं। अन्यत्रादियों का भय खत्म हो जाता है।'
(v) ध्यान तप-अस्थिर मन को स्थिर करने के लिए जो तप किया जाता है वह ध्यान तप है। 'आवश्यक नियुक्ति' में ध्यान पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि चंचल चित्त का किसी एक विषय में स्थिर हो जाना ध्यान है ।' 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्रवृत्ति को स्थिर करना ध्यान है ।
ध्यान तप की सहायता से व्यक्ति चित्त की चंचलता को रोककर एकाग्रता द्वारा आत्मिकशक्ति का विकास करके मुक्ति प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है। श्री हेमचन्द्राचार्य के अनुसार, मोक्ष कर्मों के क्षय से प्राप्त होता है। कर्मों का क्षय आत्मज्ञान की सहायता से प्राप्त होता है । आत्मज्ञान आत्मध्यान (ध्यान तप) से होता है । इस प्रकार आत्मध्यान ही आत्मा के हित का साधक है।
ध्यान तप मुख्य रूप से अप्रशस्त और प्रशस्त दो भागों में बँटा है । पुनः प्रशस्त ध्यान धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान तथा अप्रशस्त ध्यान आर्त एवं रौद्र ध्यान में बंटा
हुआ है।"
अप्रशस्त ध्यान-यह अशुभ ध्यान है । इसे कुध्यान भी कहा जाता है । प्रशस्त ध्यान-यह शुभ ध्यान है।
(vi) व्युत्सर्ग तप-'व्युत्सर्ग' का अर्थ त्यागना या छोड़ना है । इसमें सब पदार्थों यहाँ तक कि अपने शरीर व प्राण के प्रति भी मोह का त्याग किया जाता है । 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है कि सोने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ चेष्टा नहीं करता है
१. अनागार धर्मामृत ७.८९ । २. चित्त सेगग्गया हवइ आणं ॥ १४५९ ॥ आवश्यक नियुक्ति । ३. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥ ९।२७-२८ ॥ तत्त्वार्थसूत्र ४. योगशास्त्र, ४।११३ । ५. मूलाचार, ३९४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org