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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
(1) विनय तप-अपने से बड़े तथा गुरु एवं आचार्यों का आदर करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना विनय तप है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसके चार भेद बताये गये हैंज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार ।'
तपों में विनय तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी सहायता से ज्ञान, संयम और तप सधते हैं। इनकी सहायता से मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है, क्योंकि ये सभी मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं ।
(ii) वैयावृत्य तप-उचित व्यक्ति को उचित प्रकार से सेवा, आदर सत्कार करना ही वैयावृत्य तप कहलाता है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वैयावृत्य तप के बारे में कहा गया हैं कि जिस व्यक्ति को जिस प्रकार की आवश्यकता हो उसी प्रकार से उसका उचित आदर, सत्कार, सम्मान करना ही वैयावृत्य तप है। मूलाचार के अनुसार आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर, नवदीक्षित बाल मुनियों, वृद्ध मुनियों की सामर्थ्य से जैसे-शय्या, आसन, उपाधि, प्रतिलेखना, शुद्ध आहार, औषधि, वाचना और वन्दना द्वारा सेवा करना वैयावृत्य तप है।
___ इस तप की सहायता से व्यक्ति अपने मन में समाधि का भाव पैदा करके अपनी ग्लानि को दूर करता है तथा वह निःसहायता या निराधारता की अनुभूति नहीं करता है। आचार्य शिवार्य के अनुसार वैयावृत्य तप करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन होता है । यही आज्ञा संयम है। इससे वैयावृत्य करने वाले का उपकार निर्दोष रत्नत्रय का दान तथा संयम में सहयोग प्राप्त होता है, विचिकित्सा (ग्लानि) दूर होती है। धर्म की प्रवाहना और कर्तव्य का निर्वाह होता है।
(iv) स्वाध्याय तप-स्वाध्याय तप मन को निर्मल बनाने की एक प्रक्रिया है। 'उत्तराध्ययन' के अनुसार स्वाध्याय तप करने से सम्पूर्ण दुःखों से छुटकारा मिल जाता है।" 'आचार्य पूज्यपाद' के अनुसार आलस्य का त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।६ पं० आशाधर के अनुसार गणधरों द्वारा रचे गये सूत्रों एवं ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय है।
१. ज्ञानदर्शन चरित्रोपचाराः । ९।२३ ॥ तत्त्वार्थसूत्र । २. ओसवपं जहाथामं वैयावच्चं तमाहियं ॥ ३०॥३३ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र । ३. मूलाचार, ३८९, ३९१ । ४. भगवती आराधना, ३१० । ५. सज्झाएवा निउप्तेण सम्वदुक्ख विमोक्खणं ॥ २६॥१०॥ उत्तराध्ययनसूत्र । ६. ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः ॥ ९।२० ॥ सर्वार्थसिद्धि । ७. सूत्रं गणधरायुक्तं श्रुतं तद्धाचनादयः स्वाध्यायः ॥ ९४ ॥ अनागार धर्मामृत ।
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