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________________ जैन धर्म में तप 73 सहिष्णुता की अत्यन्त आवश्यकता होती है। साधक को कष्ट सहिष्णु होना चाहिए, जो साधक कष्ट सहिष्णु नहीं होता है, वह कष्टों से घिर जाने पर अपना धैर्य खो बैठता है। इस कारण वह अपने धर्म पथ से च्यूत हो जाता है। इसीलिए कहा भी गया है कि तितिक्षा साधक का परमधर्म है ।' 'निशीथचूणि' के अनुसार साधक को अपने मन में धीरता, वीरता, साहस और सहिष्णुता की प्रवृत्ति को संजो कर रखना चाहिए, क्योंकि यही सभी तप की मूल धृति है। इस तप-साधना के अभ्यास से देह के प्रति अनासक्ति का भाव जागृत होता है। साधक का चिन्तन गतिमान् होने लगता है। वह सोचने लगता है कि यह शरीर क्षणभंगुर है, कष्ट से शरीर को पीड़ा होती है, आत्मा को नहीं। शरीर नाशवान् है आत्मा नहीं।' इस तरह शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानकर व्यक्ति दुःख एवं क्लेशों को व्याप्त करने वाले देह के प्रति अपने ममत्व का त्याग कर देता है । (२) आम्यन्तर तप मन के आन्तरिक विकारों, दूषित मनोवृत्तियों, कषायों, प्रमादों आदि को आभ्यन्तर तप की सहायता से दूर किया जाता है । 'भगवती आराधना' में कहा गया है कि आभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणाम रूप होते हैं। इनके विना बाह्य तप निर्जरा में समर्थ नहीं होता है। अतः निर्जरा के लिए आभ्यन्तर तप की आवश्यकता होती है। इसके छह भेदों पर चर्चा की जा रही है (1) प्रायश्चित तप-अपने दोषों को जानकर उसके प्रति खेद व्यक्त करना ही प्रायश्चित तप कहलाता है । 'सर्वार्थसिद्धि में प्रायश्चित तप पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि किसी व्रत-नियम भंग होने पर उसमें लगे दोषों का परिहार करना या अपने आचार्य के पास चित्त शुद्धि के लिए अपने दोषों को प्रगट करना और उसके लिए प्रायश्चित करना ही प्रायश्चित तप है। व्यक्ति इस तप की सहायता से अपने दोषों को ठीक करता है। मूलाचार में इसके दस भेद बताये गये है-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ।' १. तितिवखं परमं गच्चा । सूत्रकृतांग १।८२६ । २. तवस्स मूलं घिति । निशीथचूणि ८४ । ३. नत्थि जीवस्स ना सुत्ति । उत्तराध्ययनसूत्र २।२७ । ४. अन् तरसोधीए सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं । ___ अब्भंतरदोसेण हु कुणादि णरो बाहिरं दोसं ॥ १३४३ ॥ भगवती आराधना । ५. प्रमाद दोषः परिहारः प्रायश्चितम् ॥ ९।२० ॥ सर्वार्थसिद्धि । ६. मूलाचार, ३६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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