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________________ 226 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 से भी अलग हो जाता है और चौथी अवस्था में ध्यान-जन्य आनन्द, दैहिक-सुख आदि किसी का भी बोध नहीं रहता है । यही पूर्ण शान्ति तथा पूर्ण निरोध की अवस्था होती है । प्रक्षा का उदय होना ही अविद्या का नाश है । इसके भी तीन प्रकार बताये गये है-श्रुतमयी, चिन्ता. मयी और भावनामयी। ये सभी आध्यात्मिक शिक्षा के विषय है। यद्यपि बुद्ध और उनके अनुयायियों ने अध्यात्म के विषय को अण्याकृत कहा है, लेकिन दुःख से निवृत्ति के जो उपाय या मार्ग बताये गये हैं, वे क्या हैं ? वही तो अध्यात्म विद्या है और अध्यात्म विद्या के द्वारा ही परम आनन्द, परम शान्ति की प्राप्ति होती है । लौकिक शिक्षा का उद्देश्य भौतिक सामग्रियों को एकत्रित करना और उनको सुख का साधन मानकर उनमें आसक्त रहना ही लौकिक शिक्षा का उद्देश्य है । लेकिन इससे शाश्वत सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती है । मानव अपने सुख के कितनी भी भौतिक उपलब्धि प्राप्त कर ले फिर भी उसको इच्छायें कभी भी शान्त नहीं हो पाती हैं। मानव को जीवन धारण करने के लिए जैसे रोटी, कपड़ा और मकान को आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन की सुरक्षा के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शद्धि और आजीविका के साधन इन तीनों की आवश्यकता है और यही कारण है कि प्राचीनकाल से मानव को सुसंस्कारी बनाने के लिए तथा जीवकोपार्जन की योग्यता अजित करने के लिए कलाओं का गहराई से अध्ययन करने पर विशेष जोर दिया जाता रहा है। इन कलाओं के अध्ययन के पीछे एक ही लक्ष्य निहित है और वह है लोक व्यवहार में निर्वाह करने की क्षमता और प्राकृतिक पदार्थों को अपने लिए उपयोगो बनाने और उनका समीचीन उपयोग करने की योग्यता अजित करना। जेन ग्रन्थों में उल्लिखित कलाओं की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए डॉ० हीरालाल जैन ने बताया है कि जैन धर्म में गृहस्थ धर्म की व्यवस्थाओं द्वारा उन सब प्रवृत्तियों को यथोचित स्थान दिया गया है जिनके द्वारा मनुष्य सभ्य एवं शिष्ट बनकर अपनी, अपने कुटुम्बों की तथा समाज एवं देश की सेवा करता हुआ उन्नत बन सके ।' जैन आगमों में बालकों को उनके शिक्षण-काल में शिल्पों एवं कलाओं की शिक्षा पर जोर दिया गया है। यहाँ गृहस्थों के लिए जो षट्कर्म बताये गये हैं उनमें असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य के साथ-साथ शिल्प का भी उल्लेख है । बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व को सुखी बनाने तथा देश-व्यवहार के ज्ञान को प्राप्त कराना है। विद्यार्थी को धर्म और विनय की आवश्यक बातें समझाना जिससे कि वह यह भलो-भांति समझ सके कि गलत सिद्धान्त कौन से हैं और वाद-विवाद करके अन्य व्यक्तियों को सही सिद्धान्त ग्रहण करने और गलत सिद्धान्त को छोड़ने के लिए राजी कर १. प्राचीन भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० २८४ । २. वही, पृ० २८४ । ३. जातक (हिन्दी अनुवाद) जि० २, पृ० ४२५ । ४. वही, जि० ३, पृ० ३९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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