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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य तथा विषय
225 तत्वार्थसूत्र में जैनाचार्य उमास्वाति ने निहित अर्थात् मोक्ष के तीन मार्ग बतलाये हैंसम्यग्दर्शन, सम्यमान और सम्यग्चारित्र । इन्हें 'त्रिरत्न' के नाम से भी जाना जाता है । साथ ही इन्हें शिक्षा-साधना का कल्याणपथ माना जाता है । सम्यग्चारित्र के अन्तर्गत 'पंच. महावत' आ जाते हैं । इनके अतिरिक्त मैत्री, गुणिजनों के प्रति प्रमोदवृत्ति, करुणावृत्ति और माध्यस्थ्यवृत्ति आदि चार भावनाएं तथा क्षमा, मार्दव, ओर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य आदि दस धर्म आध्यात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत विद्यार्थियों को सिखाया जाता है।
आध्यात्मिकता के विषय में बौद्ध मतावलम्बी स्पष्ट नहीं हैं । क्योंकि एक बार मालुक्यपुत्र ने बुद्ध से लोक के शाश्वत्-अशाश्वत्, अन्तवान-अनन्त होने तथा जीव-देह की भिन्नताअभिन्नता के विषय में दस मेण्डक प्रश्नों को पूछा पर, बुद्ध ने अव्याकृत बतलाकर उनकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया।' इसी प्रकार के प्रश्न पुनः पोढ्ढपाद परिव्राजक ने भी किया तो भगवान् बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"न यह अर्थयुक्त है, न धर्मयुक्त, न आदि ब्रह्मचर्य के लिए उपयुक्त, न निर्वेद के लिए, न विराग के लिए, न निरोध अर्थात् क्लेशनाश के लिए, न उपशम के लिए, न अभिज्ञा के लिए, न संबोधि अर्थात् परमार्थ ज्ञान के लिए और न निर्वाण के लिए। इसीलिए मैंने इसे अव्याकृत कहा है तथा मैंने व्याकृत किया है । दुःख के हेतु को, दुःख के निरोध को तथा दुःख निरोध-गामिनी प्रतिपत् को।"२ इन्हें ही चार आर्य सत्य के नाम से जाना जाता है। विज्ञान भिक्षु और व्यास ने अध्यात्मशास्त्र को चिकित्साशास्त्र के समान चतुर्व्यह बताया है-'जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोग हेतु, आरोग्य तथा भैषज्य है उसी प्रकार अध्यात्म शास्त्र में संसार अर्थात् दुःख, संसारहेतु अर्थात् दुःख का कारण, मोक्ष यानी दुःख का नाश तथा मोक्ष के उपाय ये चार सत्य माने जाते हैं। इन चार आर्य सत्यों के चौथे यानी मोक्षगामिनी प्रतिपत् के अन्तर्गत ही अष्टांगिक मार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि आदि) आ जाते हैं । ये आठों मार्ग त्रिरत्न में समाहित हैं। शील, समाधि और प्रज्ञा ही त्रिरत्न के नाम से जाने जाते है। शील का तात्पर्य सात्विक कार्यों से है। इसके पांच प्रकार बताये गये हैं-अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य तथा नशा का त्याग जिन्हें पंचशील की संज्ञा से विभूषित किया गया है। समाधि के द्वारा चित्तशुद्धि होती है। इसके चार अंग बताये गये हैं-पहली अवस्था में साधक एकाग्रचित्त हो जाता है, दूसरी अवस्था में साधक के सन्देह दूर हो जाते हैं, तीसरी अवस्था में साधक का ध्यान आनन्द
१. चूलमालुक्यसुत्त-६३, मज्झिमनिकाय (अनु०) पृ० २५१-५३ । २. पोढपाद सुत्त-१९, दीघनिकाय, पृ० ७१। ३. सांख्य प्रवचन भाष्य-पृ०६। ४. यथा चिकित्साशास्त्रं चतु!हं-रोगो, रोग हेतुः आरोग्यं, भैषज्यमिति । एवमिदपिशास्त्रं चतुव्यूह - तद् यथा, संसारः संसार हेतुः मोक्षो, मोक्षोपाय ।
व्यासभाष्य-२०१५
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