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________________ 224 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 शुभ-अशुभ कर्म-बन्ध होता है। जब जीव सच्चे ज्ञान द्वारा अपने कर्मों को क्षीण करता है तब परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है । बौद्ध ग्रन्थ 'माध्यमिककारिका' में कहा गया है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों जीवन के योग्य बनाती है। पारमार्थिक जीवन से तात्पर्य निर्वाण से है। अतः बौद्ध दर्शन के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जो मनुष्य को निर्वाण की प्राप्ति कराये । निर्वाण की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है । कुछ विद्वानों ने 'निर्वाण' का अर्थ जीवन का अन्त किया है तो कुछ ने बुझ जाना । किन्तु बौद्ध परम्परा में निर्वाण का अर्थ 'जीवन का अन्त' ग्रहण नहीं किया गया है बल्कि जिस प्रकार दीपक का निर्वाण अर्थात् दीपक का बुझ जाना है, उसी प्रकार वासना की अग्नि का बुझ जाना ही निर्वाण है। निर्वाण में लोभ, घृणा, क्रोध और भ्रम की अग्नि बुझ जाती है अथवा कामास्रव, भवासव एवं अविधास्रव आदि मन की अशुद्धि का नष्ट हो जाना निर्वाण है । धम्मपद में निर्वाण को एक आनन्द की अवस्था, परमानन्द, पूर्णशान्ति और दुःखों का अन्त कहा गया है। और इस आनन्द की अवस्था को प्राप्त करना ही आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य है । आध्यात्मिक शिक्षा के विषय पं० सुखलाल संघवी ने प्राणी तथा उसके सुखों को दो वर्गों में विभाजित किया हैपहले वर्ग में अल्प विकास वाले ऐसे प्राणी आते हैं जिनके सुख की कल्पना बाह्य साधनों तक सीमित है। दूसरे वर्ग में अधिक विकास वाले ऐसे प्राणी आते है जो बाह्य अर्थात् भौतिक साधनों की प्राप्ति में सुख न मानकर आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति में सुख मानते हैं । किन्तु दोनों में यही अन्तर है कि पहला सुख पराधीन है तथा दूसरा स्वाधीन । लेकिन जब तक मनुष्य सजीव और निर्जीव पदार्थों में आसक्ति रखता है तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" आचारांग में भी कहा गया है कि काम अर्थात् कामनाओं का पूर्ण होना असम्भव है, और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता। कामेच्छुक मनुष्य शोक किया करता है, संताप और परिताप उठाया करता है। जब तक मानव जीवन में आसक्ति बनी हुई है, मानवीय दुःख बने हुए है। इन दुःखों से मुक्ति तभी मिलती है जब मानव सांसारिक विषयों से निवृत्ति की ओर अग्रसर होता है। १. सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना। लोक संविति सत्यं च परमार्थना ॥ -माध्यमिक कारिका २४।८ । २. संयुक्त निकाय ३-२५१, २६१, ३७१ । ३. धम्मपद-२०, २३३ । । ४. तत्वार्थसूत्र-पृ० १। ५. सूत्रकृतांग-१, १, ३ । ६. कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिवहगं काम कामी खलु अयं पुरिते से सोयई; जूरई तिप्पई परितिप्पई ।-आचारांग २,९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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