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प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा
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197 [७] ज्ञ का ग आदेश हुआ है । यथा-संज्ञा = सण्णा (सेतु० १११७०);
ज्ञायते = णज्जति (गउ० ९६२); ज्ञाण = णाण (कुमा० १।२४);
विज्ञाण = विण्णाण (लीला० १००; १०५, २८५)। [८] स्त का थ तथा रुप के स्थान में ह का आदेश हुआ है । यथा(1) स्त = 4-हस्त = हत्थ (सेतु० ५।६४) (गउ० ७६३) (लीला० ४२१) (कुमा०
११७८; २।१०; ३।६९); स्तोक= थोअ (सेतु० ५।७२) तथा स्तोत्रम =
इत्थं (लीला० १३६; २२५; २२८)। () प =ह-वाष्पं = वाहं (सेतु. १११११५) (कुमा० ३।२७) (लीला० ३०९;
३१०; ३९५, ६१५, ७०३; ७०७; ७०९; ८७५); वाष्पावतार -
बाहोआर (गउ० १३२) । [९] ह्व के स्थान पर ह का आदेश हुआ है । यथा
विह्वल = विहल (सेतु० ५।८४; १११७०); जिह्वा = जीहा (गउ० ३२८)
तथा (लीला० १००६); विह्वला = विहला (कुमा० ३।२१)। [१०] न्म के स्थान पर म्म का आदेश हुआ है । यथा -
मन्मथ = वम्मह (सेतु० ११॥३) (गउ० ७६६) (कुमा० २।५८; ३१)
तथा (लीला० ७१; ८९)। [११] विजातीय संयुक्त वर्ग स्वजातीय संयुक्त वर्ग में बदल जाते हैं । यथा
चक्रम् = चक्कं (लीला० ९३); शुक्ति = सुत्ति (कुमा० ३१७१); सर्गः = सग्गो (लीला० ३३८); रसाग्र = रसग्ग (गउ० ११७८); प्राप्तः = पत्ता (सेतु० १११३८); निश्चल = णिच्चल (कुमा० ३।२२)
(सेतु० १४१३५); सत्पुरुष = सप्पुरुष (गउ० ८०४) आदि । [१२] आद्य 'स' का लोप हो गया है । यथा
स्थल = थल (सेतु० ११।१२६) (कुमा० ५.६४) (लोला० १७९); स्फुरति = फुरई (गउ• ७८५); स्तम्भ = थंभ (लीला० १३१५);
स्तन = थण (कुमा० ११७; ३।७८); (लोला० २५५) । (घ) वर्णव्यत्यय - शब्दों में व्यंजन के स्थान का व्यत्यय हुआ है । यथा
कनक = कअणा (सेतु० ८।२९); कनक = कणअ (गउ० १०५९);
कनक = कयण (लीला० ७६९); करेणु = कणेरू (कुमा० ३।६०)। (ङ) सम्प्रसारण-आपृच्छे = आउच्छामि (सेतु० ११११११); पुञ्जितोच्छ्वसित = पुंजइऊ
ससिअ (गउ० ५५७); मूर्ख = मुरुक्ख (कुमा० ३।५६); आपृच्छ्य = आउच्छिऊण (लीला० ४३४)।
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