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________________ जैन वाङ्मय में नारी-शिक्षा 171 हरिवंशपुराण में इन्द्रगिरि राजा की पुत्री गान्धारी का आख्यान आया है । इस आख्यान में बतलाया गया है कि गान्धारी गान्धर्व कला में अत्यन्त प्रवीण थी । उसकी कला की प्रशंसा सभी मुक्त कण्ठ से करते थे । पद्मपुराण में बतलाया गया है कि धन, विद्या और धर्म इनकी प्राप्ति विदेश में होती है । अतः कन्याओं की शिक्षा आयिकाओं के समीप किसी चैत्यालय अथवा मुनि संघ में होती थी । इस प्रकार की संस्थाएँ चलती-फिरती छोटी पाठशालाओं के रूप में प्रतिष्ठित थीं । पुत्र मुनि और उपाध्याय के समीप शिक्षा प्राप्त करते थे तथा कन्याएँ आर्यिकाओं और क्षुल्लिकाओं के समीप शिक्षा प्राप्त करती थीं। इन चलती-फिरती विद्यापीठों के अतिरिक्त कुछ ऐसे गुरुकुल भी विद्यमान थे जिसमें उच्चकोटि की शिक्षाएँ ग्रहण की जाती थीं । मङ्गलनगर के नृपति शुभमति की कन्या केकया ने समस्त विद्याओं और कलाओं में प्रवीणता प्राप्त की थी । पद्मपुराण में वर्णित केकया की शिक्षा से तत्कालीन जैन समाज में कितनी प्रकार की विद्याओं की शिक्षा दी जाती थी, इसका विस्तृत वर्णन मिलता है । केकया ने अंगहाराश्रय, अभिनयाश्रय और व्यायामिक इन तीनों प्रकार के नृत्यों की शिक्षा प्राप्त की थी । उसने कण्ठ, सिर और उर स्थल से अभिव्यक्त होने वाले सप्त स्वरात्मक संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी । षडज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और विषाद इन सप्तस्वरों का परिज्ञान उसने प्राप्त किया था । द्रुत, मध्य और विलम्बित इन तीन लयों तथा अस्र और चतुरस्र इन दो प्रकार की तालों तथा स्थायी, संचारी, आरोही और अवरोही इन चार प्रकार के पदों का परिज्ञान प्राप्त किया था । प्रातिपदिक, तिङ्न्त, उपसर्ग और निपात इन चार प्रकार के ध्याकरण पदों के संस्कार से प्राप्त संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी तीन प्रकार की भाषाओं को सीखा था । धैवती, आषंभी, षड्ज-षडना, उदीच्या, निदादिनी, गान्धारी, षड्ज कैकशी, और षड्ज मध्यमा इन आठ जातियों अथवा गान्धार-दीच्या, मध्यम पंचमी, गान्धार - रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोपदीच्या, कर्मारवी, नन्दिनी और कैशिकी इन दश जातियों के संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था । स्थायी प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्य प्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान इन चार अलङ्कारों का, संचारी पद के निर्वृत्त, प्रस्थित, विन्दुप्रेंखोलित, तार-मन्द्र और प्रसन्न इन छः अलङ्कारों का, आरोही पद, प्रसन्नादि अलङ्कार का एवं अवरोही पद के प्रसन्नान्त और कोहर नामक दो अलङ्कारों का अध्ययन किया । इस प्रकार सङ्गीत विद्या को परिपक्व बनाने के लिए तेरह प्रकार के सङ्गीत सम्बन्धी अलङ्कारों की जानकारी प्राप्त की गयी थी । वाद्य सम्बन्धी शिक्षा में वीणा से उत्प्रन्नवत, मृदङ्ग से उत्पन्न होने वाला अवनद्ध, बाँसुरी से उत्पन्न होने वाला शुषिर और ताल से उत्पन्न होने वाला धन इन चार प्रकार १. हरिवंश पुराण, ४४/४५/४६ ... ५०, ५१ ॥ २. पद्मपुराण ( र विषेणाचार्यकृत), भाग १, २५।४४ पृ० ४९२ । सम्पादक और अनुवादक -- पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य । ३. वही २०१५-८३, पु० ४७८-४८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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