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________________ 172 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 के वाद्य सङ्गीतों की शिक्षा प्राप्त की थी। इस प्रकार गीत, नृत्य और वादित्र इन तीनों का सम्यक् परिज्ञान उसने प्राप्त किया था। शृङ्गार, हास्य, करुण, अद्भुत, वीर, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शान्त इन रसों का एवं उनके आवान्तर भेदों की भी शिक्षा प्राप्त की थी। जो लिपि अपने देश में आमतौर से प्रचलित रहती है उसे अनुवृत्त कहते हैं। लोग अपने-अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं, उसे विकृत कहते हैं। प्रत्यङ्ग आदि वर्णों जिसका प्रयोग होता है, उसे सामयिक कहते हैं और वर्णों के बदले पुष्पादि पदार्थ रख कर जो लिपि का ज्ञान किया जाता है, उसे नैमित्तिक कहते है। इस लिपि के प्राच्य, मध्यम, यौधेय, समाद्र आदि देशों को अपेक्षा अनेक आवान्तर भेद वणित हैं। केकया ने इन समस्त लिपि ज्ञान को प्राप्त कर लिया था। स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, समानार्थत्व और भाषा इन जाति भेदों को भी सीखा था। पद महावाक्य को शिक्षा सम्यक प्रकार प्राप्त कर वाङमय के रहस्य को अवगत किया था । गद्य-पद्य और चम्पू इन तीनों प्रकार के काव्य रूपों का अध्ययन कर एकार्थक और पर्यायवाची शब्दों की जानकारी प्राप्त की थी। व्यक्तवाक्, लोकवाक् और मार्ग व्यवहार इन मातृकाओं की शिक्षा भी केकया ने उपलब्ध की थी। भाषण के चातुर्य को उक्ति-कौशल कहा जाता है। प्राचीन भारत में नर और नारी दोनों ही भाषण-कला को शिक्षा प्राप्त करते थे। जो जितना उक्ति-कौशल में प्रवीण होता था वह उतना ही लोक में समादर का पात्र माना जाता था। सामान्यतया मनुष्य अपनी वाणी के बल से ही जनसमाज को अपनी ओर आकृष्ट करता है। जिसकी वाणी में जितना चातुर्य सन्निहित रहता उसका भाषण उतना ही जन सामान्य को अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम होता है । नारी-शिक्षा में भाषण कला भी परिगणित की गयी है। चित्रकला की शिक्षा नारियों के लिए आवश्यक मानी गयी है। चित्र दो प्रकार के बतलाये गये हैं-नाना शुष्क और वजित । चावलों के कणों, धूलिकणों एवं मृत्तिका आदि से भी चित्र बनाये जाते थे। नारी-शिक्षा में पुस्तकर्म को भी स्थान दिया गया है। पुस्तकर्म के तीन भेद हैक्षयजन्य पुस्तकर्म, उपचयजन्य पुस्तककर्म और संक्रमणजन्य पुस्तकर्म । क्षयजन्य पुस्तकर्म के अन्तर्गत लकड़ी को छिलछाल कर लकड़ी के खिलौने बनाना एवं काष्ठ पदार्थों से घर्षण आदि द्वारा उपयोगी वस्तुएँ तैयार करना क्षयजन्य पुस्तकर्म है। ऊपर से मिट्टी आदि लगा कर खिलौने बनाना एवं अन्य ग्रहोपयोगी सामान तैयार करना उपचयजन्य पुस्तकर्म है। सांचे में मिट्टी पत्थर या अन्य प्रकार की गली हुई वस्तुओं को डाल कर मूत्तियां, विभिन्न आकृतियां एवं प्रतिबिम्ब तैयार करना संक्रमणजन्य पुस्तकर्म है, जो खिलौने तैयार किए जाते थे, उनमें से कुछ खिलौने में यन्त्र लगे रहते थे ।' अतः वे यन्त्र द्वारा संचालित होने के कारण १. यशस्तिलकचम्पू : एक सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ. गोकुलचन्द्र जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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