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________________ राजप्रश्नीय एवं पायासिराजचसुत्त : तुलनात्मक समीक्षा 141 उत्तम नहीं माना जाता था', कन्या के अल्पायु में विवाह का प्रचलन था, काशी के बने वस्त्रों को अधिक पसन्द किया जाता था तथा गणिकाएं वेश्याओं से भिन्न समाज की एक प्रतिष्ठित इकाई थी। इसके विपरीत जैनागमों से ज्ञात होता है कि समाज में पुत्री का जन्म खेदजनक नहीं था", कन्याओं का अल्पायु में विवाह का प्रचलन लगभग समाप्त हो गया था, प्रसाधन की दृष्टि से चीन के बने वस्त्र अधिक पसन्द किये जाते थे तथा गणिका नेश्याओं के प्रमुख के रूप में ही रह गयी थी। वौद्ध और जैन आगमों में विद्यमान इस प्रकार के समाज सम्बन्धी विषमता से परिपूर्ण चित्रणों से यह स्पष्ट है कि इन आगमों में लेखनकाल तक के कुछ अर्वाचीन अंश भी संकलित हो गये है और यही वह कारण है जिससे बौद्ध और जैन आगमों में असमानता दिखायी देती है । बौद्ध और जैन आगमों में उक्त असमानता के बावजूद कहीं-कहीं अत्यधिक साम्य भी उपलब्ध होता है । दो पृथक्-पृथक् सम्प्रदायों के आगम-ग्रन्थों में, जिनके लेखनकाल में लगभग ५०० वर्षों का अन्तराल है, इस प्रकार का साम्य दो में से किसी एक कारण से हो सकता है-पहला यह कि उन दोनों साम्य-स्थलों का मूलस्रोत एक ही हो तथा दूसरा यह कि अत्यधिक महत्वपूर्ण होने के कारण किसी एक ने दूसरे की विषयवस्तु को ग्रहण कर लिया हो । राजप्रश्नीय सूत्र एवं पायासिराजञ्चसुत्त में राजा पएसी या पायासी द्वारा अपनी नास्तिक दृष्टि का परित्याग सम्बन्धी जो साम्य उपलब्ध होता है, उसके सम्बन्ध में यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या पएसी राजा की कथा का स्रोत एक है अथवा यह किसी एक मत की विषयवस्तु थी और उसे दूसरे ने ग्रहण कर लिया है ? इस सम्बन्ध में गम्भीरता से विचार करने से पूर्व राजप्रश्नीय एवं पायासिराजञ्जसुत्त में उपलब्ध विषयवस्तु संक्षेप में प्रस्तुत कर देना आवश्यक है। राजप्रश्नीय में पएसी राजा का पावित्य केशी कुमार से जीव और शरीर जुदा-जुदा है या दोनों एक-इस पर वार्तालाप है। पए सी राजा शरीर और जीव को एक मानता है। शरीर के नष्ट होते ही शरीर के अन्दर जीव की अनुभूति वाला पदार्थ भी नष्ट हो जाता है। वह केशी कुमार से अपने मत की पुष्टि के लिए तर्क प्रस्तुत करता है कि "मैं अपने दादा १. संयुत्तनिकायपालि १.८५ । २. या पन भिक्खुनी ऊनद्वादसवस्सं मिहिगतं खुट्टापेय्यं ... पाचि०, पृ० ४४१ । ३. कासिकुत्तमधारिनि । थेरी० १३.३.२९९ । ४. दीघनिकायपालि । २.७६-७८ । ५. बौद्ध और जैन आगमों में नारी-जीवन, पृ० १६ । ६. उम्मुक्कबालभावं...""सरिव्वयाणं कन्नाणं पाणि गिहाविंसु । नाया १.१.२४ । ७. चीणंसुयवस्थपरिहिया""""आचा० २.५.१.३६८; भगवती-९.३३ । ८. बौद्ध और जैन आगमों में नारी-जीवन, पृ० १५८ । ९. राजप्रश्नीय, पृ० १६६-१८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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