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________________ 142 Vaishali İnstitute Research Bulletin No. 2 एवं दादी का लाडला पोता था। दादा अधार्मिक था और दादी धार्मिक । यदि शरीर और जीव अलग-अलग है तो दादा को मरकर नरक में उत्पन्न होना चाहिये और दादा को स्वर्ग में । ऐसी स्थिति में दादा नरक से आकर मुझे सचेत करते कि अधर्म मत करो और दादो स्वर्ग से आकर मुझे धर्म करने के लिए प्रेरणा देती। किन्तु मरने के बाद मेरे पास न दादा आये और न दादी। अतः मैं समझता हूँ कि शरीर और जीव एक है अलग-अलग नहीं।" केशी कुमार ने राजा पएसी को समझाया कि नरक में दुःख भोगते रहने के कारण और स्वर्ग के के काम-भोगों का प्यागकर न आ सकने के कारण ही आप दादा-दादी आपके पास नहीं आये हैं।' । राजा पएसी अपने मत की पुष्टि में दूसरा तर्क देता है कि मरने के समय जीव को निकलते हुए नहीं देखा जाता है और उत्पन्न होने वाले कृमि आदि के जीव को बाहर से आते हुए भी नहीं देखा जाता है। इसके उत्तर में केशी कुमार ने उदाहरण देते हुए बताया कि जीव किसी भी आवरण को भेदकर बाहर आ जा सकता है । राजा पएसी जीव और शरीर के एक होने को पुष्टि में पुनः तर्क प्रस्तुत करता है कि चूंकि मनुष्य की धनुर्विद्या में कुशलता बाल्यावस्था एवं तरुणावस्था में भिन्न-भिन्न होती है एवं तरुणावस्था एवं वृद्धावस्था में भार-वाहन करने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है अतः शरीर से जुदा जोव को मानना ठीक नहीं है। इसके उत्तर में केशी कुमार ने कहा कि धनुविद्या को कुशलता अथवा भारवाहन करने की क्षमता में भिन्नता शरीर रूपी उपकरण के कारण हो हातो है। अन्य तर्कों के समाधान स्वरूप केथी कुमार ने बताया कि जीवित एवं मृत अवस्था के शरीर के वजन में अन्तर न आवे का कारण जीव का अगुरलघु गुण है । जीव दिखायो इसलिए नहीं देता क्योंकि हम लोग अल्पज्ञानी हैं। जिस प्रकार अल्पज्ञानी आग बुझ जाने पर लकड़ियों को घिसकर आग उत्पन्न करना नहीं जानता है, उसी प्रकार हम लोग भी जीव को निकलते हुए नहीं देख पाते हैं। हाथी एवं कोड़ा में एक समान जीव होता है जिस प्रकार कूटागार शाला में रखे गये तथा थाली से ढककर रखे गये दीपकों के प्रकाश में विस्तार एव सकोच देखा जाता है उसी प्रकार हाथी के शरीर में आत्मप्रदेशों का विस्तार एवं कीड़े के शरीर में आत्मप्रदेशों का संकोच होता है। १. राजप्रश्नीय, पृ० १६६-१७० । २. वही, पृ० १७१-१७४ । ३. वही, पृ. १७५-१७८ । ४. वही, पृ० १७९ । ५. वही, पृ० १८०-१८२, १८६ । ६. वही। ७. राजप्रश्नीय, पृ० १८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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