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जैन सरस्वती की एक अनुपम प्रतिमा का कलात्मक सौन्दर्य
परम्परा काफी निरूपण में भी
स्वती की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियाँ बनाई । जैन कला में सोलह विद्या देवियों के अंकन की भी परम्परा है । पर श्रुतदेवी के रूप में अलग से सरस्वती की मूर्ति बनाने की प्राचीन प्रतीत होती है। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की यक्षी सिद्धायिका के पुस्तक और वीणा के अंकन में सरस्वती का प्रभाव देखा जा सकता है। स्वती की मूर्तियों के अबतक ज्ञात सबसे प्राचीन उदाहरणों में मथुरा के लेखयुक्त मूर्ति है जो कुषाणकालीन मानी जाती है ।
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लाडनूं के इस मन्दिर में प्रतिष्ठित सरस्वती की मूर्ति चूंकि बारहवीं शती के मध्यकाल की है किन्तु ज्ञान और शिल्प को प्रभावी सौंदर्य की एक गहरी संवेदना के साथ मिश्रित करके इस मूर्ति का अंकन किया गया लगता है । श्वेत संगमरमर के एक बड़े पाषाणफलक पर उत्कीर्ण साढ़े तीन फुट ऊँची यह खड्गासन मूर्ति दर्शकों के मन को आकर्षित करती है । सरस्वती का यह श्वेत रूप जीवन की पवित्रता का द्योतक है। भगवती सरस्वती पद्मपीठ पर त्रिभंग मुद्रा में बड़ी हैं। इस मुद्रा में तनिक भंगिमा के साथ अंगयष्ट अनुपम सौन्दर्य की प्रतीक है । अत्यधिक प्रशान्त मुख तथा पीछे अनेक किरणों से युक्त अलङ्कारिक प्रभामण्डल सम्पूर्ण आकृति में ऐक्य, निर्मलता और ओज है । शिर के ऊपर का अलङ्कार खचित चौकोर एवं ऊँचा करण्डमुकुट ( शिरोभूषण ) धारण किये हैं जो कि नुकीला एवं शिखरयुक्त है । जिसमें जगह-जगह मोती आदि जड़े हुए प्रदर्शित हैं । प्रभामण्डल के ऊपर क्रमशः दो अलंकृत अर्द्धवृत्ताकार घेरा है । पाषाणफलक के अग्रभाग में बोचोंनीच पद्मासन एवं ध्यानस्थ मुखमुद्रा में एक लघु जिन प्रतिमा है | देवी के ऊपरी दोनों हाथों के पास दोनों कनों पर उड़ते हुये दो अपने हाथों में माला सम्हाले हुये है । इनकी भक्तिभावपूर्ण मुद्रा से देवी के पूजार्थ आकाश से अभी-अभी असतरित हुए हों ।
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जैन परम्परा की सरकंकाली टीले से प्राप्त
देवी के दोनों कानों के ऊपरी भाग में तीन लड़ियों वाले झुमके तथा नीचे के भाग में गुंथे हुए बड़े-बड़े कुण्डल हैं । चूंकि करण्डमुकुट से शिर ढँका हुआ है फिर भी कानों के आसपास की केशसज्जा बड़ी ही सुन्दर है। सिर के पीछे बायीं ओर केशराशि बड़े से जूड़े के रूप में व्यवस्थित है । गले में अतिसेर युक्त ग्रैवेयक एवं प्रलम्बहार आदि विविध हार, माला आदि कण्ठाभरण धारण किये हैं । वक्ष पर पाँच लड़ियों वाला मुक्ताहार दोनों पुष्ट स्तनों के ऊपर से गहरी नाभि के पास तक लटक रहा है, जिसकी बगली फुन्दे दायीं ओर से पीछे की तरफ झूलते हुए दर्शाये गये हैं । कटिभाग में अलंकृत चौड़ा कटिबन्द मेखला ( करधनी ) धारण किये हुए हैं, जिससे बिना तहों वाला सामने कमर में जहाँ अधोवस्त्र कसा हुआ है उसके घुमावदार दो से दिखाये गये हैं । अधोवस्त्र कमर से वनमाला के पास तक लहरियों के रूप में उत्कीर्ण किया गया है । दोनों बंघाओं पर एवं सुनियोजित अलंकृत लटकनों को देखने से उस समय में प्रचलित नारी के विविध आभूषणों
मोतियों की लड़ियों, झालरों
की समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है ।
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मालाधर उत्कीर्ण हैं जो ऐसा प्रतीत होता है मानो
तथा मोतियों की जालयुक्त अधोवस्त्र (धोती) आबद्ध है । फुंदने दोनों ओर बड़ी बारीकी अलग-अलग दोनों पैरों पर कई
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