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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 देवी की चार भुजायें हैं, जिनमें मंगलसूचक उपकरण हैं । सरस्वती के चार हाथों की कल्पना भी जैन आगमों के प्रथमानुयोग, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग और करणानुयोग रूप चार अनुयोगों के आधार पर की गई है। बायीं ओर के ऊपरी हाथ में रेशमी डोर से कलात्मक ढंग से बँधे हुये ताड़पत्रीय शास्त्र की लम्बो पाण्डुलिपि है जो इस बात का प्रतीक है कि वस्तुतः शास्त्रों के स्वाध्याय से ही ज्ञान की उपासना होती है । दूसरे हाथ में कमण्डलु की तरह कलश, जलकुम्भ या कुण्डिका है । कुम्भ ज्ञान के कोष का प्रतीक है । सरस्वती विद्या की देवी होने के कारण कुम्भ को देवी का प्रतीक माना गया । दाहिनी ओर के ऊपरी हाथ में अच्छी तरह गुंथा हुआ टहनीयुक्त एक बड़ा सा पद्मगुच्छक है । खिले हुए श्वेतकमल का यह पगुच्छ विद्या की पवित्रता, सौरभता, सार्वभौमिकता तथा प्रसन्नता का प्रतीक है । सरस्वती का जहाँ कहीं भी निवास होता है, वहाँ पर ये गुण स्वयमेव वर्तमान रहते हैं । इसी पद्मगुच्छक ( हंसयुक्त मृणाल -दण्ड ) के मध्य में सामने परस्पर एक दूसरे को देखते हुए हंसयुगल उत्कीर्ण हैं । जप ध्यान प्रसाद से ही ज्ञान की साधना होती है अतः उसके प्रतीक के रूप में दायीं अक्षमाला उत्कीर्ण है । काल के प्रभाव से इस माला के कुछ मनके ओर के नीचे वाले हाथ में (दानें टूट चुके हैं । 52 चारों भुजायें विविध आभूषणों से अलंकृत हैं इनमें चौड़े एवं तिकोने कलात्मक भुजFE ( बाजूबन्द) तथा कलाई में मोती जटित चूड़ियाँ, कंगन एवं कलाईबन्द आदि आभूषण यथेष्ट मात्रा में हैं । हाथों की लम्बी-लम्बी पतली अंगुलियों में अंगूठियाँ प्रदर्शित हैं। पैरों में दो लड़ियों वाली पायलें तथा पैरों के अंगूठों एवं अंगुलियों में बिछुड़ी बखूबी से अंकित गई हैं । कुशल मूर्तिकार ने कौशल्यपूर्वक अच्छे से अच्छे छोटे-बड़े सभी प्रकार के आभूषणों के अंकन की ओर ध्यान देकर कला को अमरता प्रदान की है। ओष्ठ, वक्षस्थल, कटि प्रदेश आदि के अंकन में कलाकार ने बड़ी ही सूक्ष्मदृष्टि का परिचय दिया है । देवी की गरिमामय हावभाव, कमनीय चेहरा तथा सुशिल्पित शरीर तत्कालीन स्त्रीसौन्दर्य को हमारी आँखों के सामने पूरी तरह प्रदर्शित करते हैं । मूर्तिकार के उत्साह और सुरुचि के पक्ष में जितना कहा जाये कम है । क्योंकि यह उस महान् शिल्पी की कृति है जिसका प्रयोजन था - ज्ञान की सुन्दरतम मूर्ति को आकार प्रदान करना तथा दर्शकों की आँखों को उल्लास देना । गोलाकार वेलबूटों से युक्त देवी की पादपीठ के नीचे बीचो-बीच देवी का चिह्न हंस बड़ी ही सावधान मुद्रा में उत्कीर्ण है । सभी पक्षियों में हंस को सबसे अधिक विवेकी पक्षी माना जाता है। बिना ज्ञान के विवेक दुर्लभ है, इसलिए हंस को ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के चिह्न के रूप में स्वीकार किया गया । पादपीठ के दोनों ओर अन्य दो-दो देवियाँ खड़ी हैं । दायें तथा बायीं ओर आगे की देवियाँ क्रमशः बांसुरी एवं बीणा बजा रही हैं । दोनों ही त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं । शिर अनावृत्त है और केशसज्जा सुन्दर है । घुटनों से भी नीचे तक लटकती हुई वनमालायें दोनों को अपने में घेरे हुये हैं । दोनों हो समान रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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