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कामन्दकीय नीतिशास्त्र में आर्थिक विचार
___45 राज्य सेवा के योग्य व्यक्तियों का विवरण देते हुए, उसके विशिष्ट गुणों का भी संकेत दिया है'। कामन्दक ने सेवकों के प्रति राजा के कर्तव्यों का विवरण भी दिया है। कामन्दक के अनुसार राजा की यह जिम्मेदारी है कि वह कोष में इतना धन रखे जिससे कि श्रमिकों को उचित वेतन दिया जा सके।
कौटिल्य ने उत्पादन के साधनों में साहस को भी एक साधन माना है, लेकिन कामन्दक ने अपनी नीतिसार में इस साहस को उत्साह के रूप में वर्णित किया है। कामन्दक के अनुसार किसी भी वस्तु के उत्पादन में उत्साह की आवश्यकता होती है, उनका मत है कि उत्साह से वृद्धि उत्पन्न होती है और बुद्धिपूर्वक किये गये उद्योग में निश्चय ही फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कामन्दक ने धन की प्राप्ति के लिए उत्साह को आवश्यक माना है।
कामन्दक के उपरोक्त आर्थिक विचारों में पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों से विशेष नवीनता नहीं देखने को मिलती है, इन्होंने भी अन्य पूर्ववर्ती विचारकों की भांति वार्ता को प्रमुख ध्यान दिया है और इनका अभिमत रहा है कि वार्ता के बिना राज्य का संचालन कदापि सम्भव नहीं है । वस्तुतः आचार्य कामन्दक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों, विशेषकर वृहस्पति और कौटिल्य के आर्थिक विचारों को ही अधिक विकसित किया तथा उन्हें व्यवहारिक बनाने का प्रयास किया है। इस सन्दर्भ में प्रो. रामशरण शर्मा ने ठीक ही कहा है कि कामन्दक कौटिल्य का ऋण स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करता है। उसने उसकी सामग्री को इतनी अच्छी तरह से आत्मसात् किया है कि उधार ली गई सामयी मूल रूप से अधिक सुव्यवस्थित रूप से सामने आयी है ।
- लेकिन यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आचार्य कामन्दक ने अपने नीतिशास्त्र में जिस प्रकार के आर्थिक विचारों का निरूपण किया है वे समाज के तथाकथित उच्च और सम्पन्न वर्गों के हितों के अनुरूप ही थे। वस्तुतः उसने ब्राह्मणों द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था को अपने आर्थिक विचारों द्वारा और पुष्ट करने का प्रयत्न किया। आचार्य कामन्दक द्वारा अर्थशास्त्र का आधार धर्मशास्त्र को मानना ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने का प्रयत्न ही प्रतीत होता है, दूसरी तरफ अर्थतन्त्र का आधार राजा और राज्य को मानना क्षत्रियों को सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने का द्योतक है । यद्यपि कामन्दक ने शिल्पकारों या राजकीय सेवकों या अन्य प्रकार के कर्मचारियों को राजा द्वारा उचित वेतन दिये जाने पर बल दिया है, फिर भी उनका यह विचार कि सभी वर्गों के लोगों को अपनी आय का कुछ भाग राजा को देना चाहिये, (चाहे उसकी आमदनी कितनी भी कम क्यों न हो और उनका भरणपोषण मुश्किल से हो क्यों न होता हो) इसी तथ्य को दर्शाता है कि उन्होंने सम्पन्न व्यक्तियों के हितों को ही प्रमुखता दी।
१. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-५, श्लोक-१२-१३ ।
२. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१३, श्लोक-४८। .. - ३. ' कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१३, श्लोक-३१-३२ ।
४. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१३, श्लोक-३-४ । ५. प्रो० रामशरण शर्मा, पूर्व मध्यकालीन समाज और अर्थव्यवस्था पर प्रकाश । ६. वही० ।
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