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सारनाथ की जैन प्रतिमाएँ
ओम प्रकाश पाण्डेय सारनाथ का प्राचीन इतिहास बुद्ध के आगमन से ही विशेष महत्व का माना जाता है तथा काशी का अंग भी है। यह नगर धार्मिक सांस्कृतिक होने की वजह से सभी सम्प्रदाय का विवरण मिलता है। सारनाथ के पास सिंहपुर नामक ग्राम से जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिससे इस धर्म के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। काशी जो सनातन धर्म की नगरी है, जहाँ पर ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के साथ ही साथ अन्य देवी-देवताओं की परम्परा विद्यमान रही। सारनाथ की पुरातात्विक साक्ष्यों से यहाँ की जैन कला का विस्तृत उल्लेख मिलता है । ' सारनाथ की जैन कला जो मध्य-काल की है । इस कला का प्रारम्भिक विकास प्राचीन है। इन तीर्थस्थलों में सर्वप्राचीन प्रतिमा बिहार के लोहानीपुर से एक मस्तकहीन जिन प्रतिमा प्राप्त हुई जो मौर्यकाल की मानी जाती है। जिसे काशीप्रसाद जायसवाल' द्वारा प्रकाशित की गई थी। इस प्रतिमा का हाथ और सिर खण्डित है । प्रतिमा के वक्षस्थल जैन तीर्थकरों की भांति है तथा इस पर पालिश (ओप) भो विद्यमान है। शुंगकाल की कलात्मक कीति अभी तक अप्राप्य है । प्रारम्भिक कुषाणकाल के मथुरा से मिले आयाग पट्टों पर क्वचित तीर्थकर प्रतिमा के दर्शन होने लगते हैं, लेकिन इसी युग के मध्य में तीर्थंकर प्रतिमाओं की संख्या और प्रकारों में प्रर्याप्त अन्तर होने लगता है।
____ गुप्तकाल सभी धार्मिक सहिष्णुता का युग था, इस युग में सभी वर्ग की मूर्तियों का निर्माण हुआ जो शिल्प-कला की दृष्टि से उत्तम है । इस काल की निर्मित प्रतिमाएँ जो नग्न मुद्रा, आजानबाहु, ध्यान मुद्रा में स्थित होना, हथेली एवं तलवों पर लांछन चक्र रहना, भौंहों के मध्य उर्णा आदि जैन मूर्तियों की विशेषताएँ हैं । इस काल की मूर्तियाँ जो भारतीय कला के इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। धर्म के नियम, ज्ञान प्राप्त करके उसे व्यवहार में लाने को ही सम्यक् ज्ञान कहते हैं, जिसका प्रारूप चौबीस तीर्थंकरों के मूर्तियों में प्राप्त होता है । मथुरा कला इस धर्म का बड़ा केन्द्र था जहाँ से इस काल के अनेक आयाग
१. जायसवाल, काशी, जैन इमेजेज ऑफ मौर्या पिरिएड, जे० वी० ओ० आर० एस०,
१९३७, पृ० १३०-३२; बनर्जी, ए० पी० मौर्यान् स्कल्पचर फाम लोहानीपुर, जे० वी०
ओ० आर० एस०, १९४०, पृ० १२० । २. अग्रवाल, वा० श०; मथुरा आयाग पट्ट, ज० उ० प्र० हि• तो०, भाग १४, पृष्ठ ५८ । ३. शाह, यू० पी०, जैन कांट्रिब्यूशन टू इण्डियन आर्ट, राजबली पाण्डेय स्मृति-ग्रन्थ,
पृष्ठ २९७ ।
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