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________________ 44 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 पूर्ववर्ती आचार्यों की भाँति कामन्दक ने भी राष्ट्रीय सम्बर्द्धन हेतु आय के अनेक साधन बतलाये हैं। उनका कहना है कि शुद्ध शिल्पकार, वैश्य, धार्मिक, धनी आदि भी वर्गों के लोगों को राष्ट्र के लिए अपने उत्पादन का कुछ भाग देना चाहिए'। वस्तुतः कामन्दक द्वारा अपने उत्पादन का कुछ भाग राज्य को देने का तात्पर्य यह है कि सभी वर्ग के लोग राज्य को कर दें। यद्यपि कामन्दक ने कौटिल्य की तरह विभिन्न प्रकार के करारोपण की चर्चा की है, फिर भी उन्होंने किसानों, व्यापारियों एवं शिल्पियों की सम्पन्नता को शासन का आवश्यक कार्य-क्षेत्र माना है । कामन्दक ने करारोपण के बारे में बताया है कि प्रजा से उचित काल तथा उचित ढंग से ही राजा को कर लेना चाहिए। जिस प्रकार से गाय का पालन किया जाता है और समय आने पर ही उसका दूध दूहा जाता है, उसी प्रकार राजा को अपनी प्रजा के साथ व्यवहार करना चाहिए। जिस प्रकार पौधों को सींच-सींचकर बड़ा किया जाता है किन्तु उनसे फल प्राप्ति की कामना समय-समय पर ही की जाता है, उसी प्रकार उन्होंने राजा से भी अपेक्षा की है। कामन्दक ने व्यक्तिगत एवं समष्टिगत दोनों प्रकार से आर्थिक विचारों का निरूपण किया है। व्यक्तिगत आय का किस प्रकार एकत्रित करना चाहिए और किन-किन मध्यों में उनका उपयोग करना चाहिए, इसका विस्तृत विवरण आचार्य कामन्दक ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं के लिए कोष्ठोगार के निर्माण पर भी जोर दिया है। उनका तो यहाँ तक मत है कि कोष्ठोगार के बिना व्यक्ति एक क्षण भी जिंदा नहीं रह सकता। उनके मतानुसार धन-संग्रह किस प्रकार किया जाय और किस प्रकार इसका व्यय किया जाय, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए । कामन्दकीय नीतिसार में अपनी जीविका चलाने वाले श्रमजीवि अर्थात् श्रमिकों के धनोपार्जन सम्बन्धी नियम भी आचार्य कामन्दक ने बतलाया है। उनका कहना है कि जो कर्मशीलता को प्रधान मानकर जीविकोपार्जन करते हैं, उनकी वृत्ति हो श्रेष्ठ कही जा सकती है। कामन्दक ने भी कुशल एवं अकुशल दो प्रकार के श्रमिकों का उल्लेख किया है। वस्तुतः श्रमजीवि सम्बन्धित कामन्दक के विचारों से यह प्रकट होता है कि पूर्व मध्यकाल में श्रमजीवि वर्ग नाना प्रकार के उद्योग में लगा रहता था। श्रमजीवियों के परीश्रम से उत्पादित वस्तुएँ राष्ट्रीय आय का एक प्रमुख साधन थी । कामन्दकीय नीतिसार में भिन्न-भिन्न स्थानों में इसके संकेत से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। पूर्व मध्यकाल में कुशल श्रमिकों की अत्यधिक मांग थी और वे विभिन्न प्रकार के कार्यों में लगे रहते थे। वे पृथक-पृथक ढंग से अनेक व्यवसायों से अपनी जीविका चलाते थे। किरात, भिक्षु, दास, पाकहार आदि अनेक कुशल श्रमिक कार्य के बदले में प्राप्त मजदूरी से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे । कामन्दक ने अनेक प्रकार के कुशल श्रमिकों का उल्लेख करते हुए तत्सम्बन्धी नियमों का प्रतिपालन किया है। उन्होंने १. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-४, श्लोक-५२-५४ । २. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-५, श्लोक ८३-८४ । ३. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-८, श्लोक-७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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