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कामन्दकीय नीतिशास्त्र में आर्थिक विचार
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अलावा महाजनी को भी इसमें समाविष्ट किया । कामन्दक द्वारा वार्ता को महत्व दिये जाने का कारण नितांत व्यवहारिक प्रतीत होता है, जिसका काम था - व्यापारियों, कृषिस्वामियों, पशुपालकों, शिल्पियों, उद्यमियों, राजपुरुषों और खेतिहरों को रास्ता दिखाना । इस अर्थ में वार्त्ता सर्वाङ्गपूर्ण अर्थशास्त्र थी और प्राचीन भारतीय विद्याओं में इसका महत्वपूर्ण स्थान था । जैसाकि कामन्दक द्वारा इस पर दिये गये जोर से प्रकट होता है ।
कामन्दक ने अर्थ के संग्रह का नाम ही कोष बतलाया है, उनके अनुसार राज्य की सारी क्रियाएँ कोष अर्थात् अर्थ पर ही निर्भर करती हैं, धार्मिक कार्यों के लिए सेवकों, श्रमिकों, कर्मचारियों आदि के पालन-पोषण के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है ।" आपत्ति - काल में भी राष्ट्र का वही रूप में सुरक्षित रहता है कामन्दक के अनुसार धन की आवश्यकता सैन्य संचालन में भी होती है । क्योंकि आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार की सुरक्षा के लिए सेना की आवश्यकता पड़ती है । कामन्दक के इन विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने कोष (आय) की वृद्धि पर अत्यधिक बल दिया है। दूसरे अर्थों में हम कह सकते हैं कि आचार्य कामन्दक ने इस संदर्भ में कौटिल्य का ही अनुसरण किया है ।
कामन्दक ने धन की महत्ता पर विशेष प्रकाश डाला है । उनके अनुसार धन का ही समाज में सम्मान किया जाता है। इसके अभाव में विद्वान् से विद्वान् व्यक्ति का भी तिरस्कार कर दिया जाता है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति धन का इच्छुक है और उसके प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है, उसी का जन्म लेना सार्थक है । यद्यपि कामन्दक ने धनी व्यक्ति को समाज में विशिष्ट स्थान प्रदान किया है, फिर भी उन्होंने गरीबों को हेय दृष्टि से नहीं देखा है । उन्होंने राजा को यह निर्देश दिया है कि जो जीविका का साधन खोजमे तथा किसी कार्य को सम्पन्न करने में असमर्थ है, उसका पालन-पोषण राजा को करना चाहिए । राजा के कर्त्तव्य को निर्धारित करते हुए कामन्दक ने यह सुझाया है कि राजा को चाहिए कि प्रत्येक वर्ग तथा उसकी वृत्ति के अनुसार कार्य का बँटवारा करें । काल, स्थान, पात्र आदि का सम्यक् विचार कर यह समाज के हर व्यक्ति के लिए अर्थोपार्जन की व्यवस्था करें ।
आचार्य कामन्दक ने अपने आर्थिक विचारों में भूमि को अत्यधिक महत्व प्रदान किया है, उनका कहना है कि यदि भूमि अच्छी है, तो राष्ट्र भी अच्छा होगा, क्योंकि भूमि के विकास पर हो राष्ट्र का विकास निर्भर करता है, भूमि के द्वारा ही फसलें, खानें, रत्नादि धातुओं की प्राप्ति होती है । इसी से वनों में विभिन्न प्रकार की औषधियाँ तथा वृक्षों से प्राप्त आय राष्ट्र की सम्पन्नता और समृद्धि को ओर बढ़ाती हैं कामन्दक के इन विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि वे भूमि को अधिकाधिक उर्वरा बनाने के पक्षधर थे, साथ-साथ उन्होंने धातु निष्कर्षण तथा भूमि के गर्भ में छुपे हुए अन्य वस्तुओं को खुदाइयों द्वारा प्राप्त करने पर बल दिया है ।
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इस प्रकार कामन्दक ने राष्ट्रीय आय का महत्वपूर्ण साधन भूमि को माना है ।
१. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१, श्लोक -- ६१-६२ ।
२. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग - ५, श्लोक -६२-६४ ।
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कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग - ४, श्लोक - ४८-५० ।
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