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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 है कि उन्होंने धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों को प्रमुखता दी है । कामन्दक द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म, अर्थ एवं काम का परिज्ञान आवश्यक माना गया है | 42 कामन्दक के विचारानुसार, अर्थशास्त्र के सम्यक् ज्ञान के लिए प्राचीन विद्याओं की जानकारी प्राप्त करना अत्यधिक आवश्यक है, अतएव उन्होंने विद्या तथा उसके महत्व पर अत्यधिक बल दिया है । उन्होंने आन्विक्षिकी, त्रयी, वर्ता तथा दंडनीति को विद्या का विभिन्न प्रकार बतलाया है, ' लेकिन उन्होंने इन सबों में दण्डनीति को अधिक महत्व प्रदान किया है । कामन्दक ने भी वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, जैसा कि अन्य पूर्ववर्ती विचारकों ने किया है और समस्त आर्थिक क्रियाओं का विभाजन वर्ण-व्यवस्था के आधार पर किया है । आचार्य कामन्दक ने ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य तथा शूद्र चारों के अलग-अलग कर्म बतलाये हैं । वस्तुतः प्राचीन भारत में वर्ण-विभाजन का सिद्धान्त श्रम विभाजन का ही प्रारम्भिक स्वरूप था और इससे समाज की अर्थिक अवस्था को सुदृढ़ बनाने में पर्याप्त सहायता मिलती थी । इस सन्दर्भ में यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उन्होंने श्रम विभाजन के सिद्धान्त को स्वीकार करके अपने वर्णं की राजनीतिक एवं सामाजिक हितों की पूर्ति की कोशिश की । उन्होंने इसी कारण कठोर नियमों का उल्लेख भी किया है । कामन्दक ने राजा और ब्राह्मणों के आर्थिक हितों की पूर्ति हेतु रूढ़िवादी वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्तों की व्याख्या की अर्थोपार्जन की दृष्टि से ब्राह्मणों ने चार आश्रम की व्यवस्था की थी, उस पर कामन्दक ने भी अधिक बल दिया । वर्णों के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों का विवेचन भी उन्होंने ही किया है। डॉ० रामनरेश त्रिपाठी की यह धारणा है कि अर्थोपार्जन की दृष्टि से चार आश्रमों को जन्म देना अति आवश्यक था । कामन्दक ने यह निर्देश दिया कि ब्रहमचारी भिक्षावृत्ति से, गृहस्थ कृषि, अध्ययन, अध्यापन आदि क्रियाओं से अर्थोपार्जन करें । प्रत्येक के जीविकोपार्जन के नियम अलग-अलग बनाये गये थे । लेकिन इन सभी आश्रमों में कामन्दक ने गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना है । यद्यपि कामन्दक ने दण्ड- नीति को सभी विद्याओं में प्रमुखता दी है, फिर भी उन्होंने वार्ता का महत्व पूर्ववर्ती विचारकों की तुलना में अधिक दिया है । "वार्त्ता" शब्द का मूल है। वृत्ति अर्थात् जीविका । वार्त्ताशास्त्र के अन्तर्गत कामन्दक ने हिरण्य, वस्त्र, धान्य, वाहन आदि अनेक प्रकार की उत्पादक वस्तुएँ रखी हैं । वार्त्ता को संसार का मूल कहा गया है । यह राजाओं के लिए अवश्य पठनीय थी, ताकि उन्हें इसका व्यावहारिक ज्ञान रहे । समाज के कल्याण के लिए वार्ता का इतना महत्व था कि कामन्दक ने ऐसी सलाह दी है कि जो लोग वार्ता में कुशल हों, उन्हें किसी साधन का अभाव नहीं रहने दिया जाय । कौटिल्य और मनु वार्ता में कृषि, पशुपालन और वाणिज्य को समाविष्ट करते हैं, किन्तु कामन्दक ने इन सबके १. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग - १ श्लोक २, ३ ॥ २. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग - २, श्लोक - १९,२१ । ३. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग - २, श्लोक - ३५ । ४. डॉ० रामनरेश त्रिपाठी, प्राचीन भारतीय आर्थिक विचार, पृष्ठ- २३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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