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________________ समराइच्चकहा में सन्दर्भित प्राचीन बिहार प्रो० डॉ० राजाराम जैन आचार्य हरिभद्र विरचित समराइच्चकहा प्राच्य भारतीय वाङ्मय की एक अनूठी रचना है। उसमें मानव-जीवन के विविध पक्षों को प्रकाशित करने में प्रतिभामूत्ति हरिभद्र ने अपनी कुशल एवं मौलिक प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। इन पक्षों का एक साथ संग्रह एवं उनका विश्लेषण यहाँ सम्भव नहीं। प्रस्तुत लघु निबन्ध का प्रमुख उद्देश्य तो केवल यही परीक्षण करना है कि औपन्यासिक शैली में ग्रथित उक्त लोकप्रिय रचना में तीर्थंकरों तथा जैनविद्या की महान् ऐतिहासिक भूमि -बिहार को कितना स्मरण किया गया है ? यह कहना तो कठिन ही है कि हरिभद्र ने कभी बिहार की यात्रा को होगी क्योंकि उनके साहित्य में इस प्रकार का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। १४४४ ग्रन्थों के लेखक एवं टीकाकार' से यह आशा भी नहीं की सकती है कि वह लम्बी यात्राओं में अभिरुचि रखता रहा हो । जो लेखक एक साधु के कठोर नियमों का पालन करते हुए तथा रात्रि में दीपक जलवाने के हिंसा-दोष से बचते हुए, एक साधुभक्त श्रावक (लल्लिग) के द्वारा अपने अध्ययन-कक्ष में प्रस्थापित हीरे के प्रकाश में एकरस होकर रात-रात तक निरन्तर ही साहित्य-प्रणयन करता रहा हो, उसे यात्रा के लिए, विशेषरूपेण दूर देश की यात्रा के लिए समय ही कहाँ से मिल पाता ? यह सही है कि "समराइच्चकहा" भूगोल का ग्रन्थ नहीं है। फिर भी, हरिभद्र ने उसके अनेक कथा प्रसंगों में बिहार के प्रसिद्ध कुछ प्रमुख स्थलों के उल्लेख किए हैं, जिनमें क्षितिप्रतिष्ठपुर, वसन्तपुर, विशाखवर्धन, पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, मिथिला, कोल्लाग-सन्निवेश, चम्पा एवं महासर नामक नगर प्रमुख हैं। अटवियो में उन्होंने 'कादम्बरी' का उल्लेख किया है। इन स्थलों की जानकारी के लिए हरिभद्र के सम्मुख पूर्ववर्ती अनेक साहित्यिक परम्पराएँ एवं अनुश्रुतियाँ तो थी ही, साथ में बिहार-भूमि के प्रति उनके मन में श्रद्धा समन्वित सुकोमल भावनाएँ भी। उक्त सन्दर्भित स्थलों की वर्तमान सन्दर्भो में अवस्थिति, उनके इतिहास एवं महत्व पर यहाँ संक्षेप में कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा हैक्षितिप्रतिष्ठितपुर इस नगर को पहिचान वर्तमान राजगृही से की गई है । अपनी प्रारम्भिक कथा (राज. कुमार गुणसेन एवं पुरोहित पुत्र अग्निशर्मा) के प्रारम्भ में इस नगर का वर्णन करते हुए १. दे० समराइच्चकहा डॉ० छगनलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित (बीकानेर १९७६) भू० पृ० १५ । २. दे० वही० पृ० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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