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समराइच्चकहा में सन्दर्भित प्राचीन बिहार
हरिभद्र ने उसकी नगर संरचना का सुन्दर चित्रण किया है एवं वहाँ के निवासियों की विविध सांस्कृतिक अभिरुचियों की चर्चा की है ।'
आवश्यक नियुक्ति एवं चूर्णि के अनुसार पूर्वकाल में भी इस नगर का नाम क्षितिप्रतिष्ठितपुर था | प्रतीत होता है कि पृथिवीमण्डल पर ख्याति प्राप्त होने के कारण ही सम्भवतः उक्त नगर का यह नाम पड़ा होगा, किन्तु परवर्त्तीकालों में राजनैतिक एवं भौगोलिक कारणों से उसके नामों में परिवर्तन होता रहा । जैन अनुश्रुतिओं के अनुसार क्षितिप्रतिष्ठितपुर के राजा जितशत्रु ने उसे क्षीणवास्तुक समझकर वास्तुशास्त्रविद् विद्वानों की सम्मति से एक नवीन नगर की स्थापना की तथा वहाँ चनों की अधिक पैदावार के कारण उस नगर का नाम “चणकपुर” रखा । आगे चलकर उस नगर में भी कुछ त्रुटियों का अनुभव किया जाने लगा, अतः अन्य किसी राजा ने कुशा-दर्भ बहुल प्रदेश पर " कुशाग्रपुर ” नामक एक नवीन नगर का निर्माण कराया, किन्तु वहाँ भी समय-समय पर अग्निकाण्ड होने के कारण राजा श्रेणिक ने पुनः स्थान परिवर्तन कर दिया और राजगृही के नाम से पुनः एक नवीन नगर की रचना कराई। उसने राजगृही की श्री-समृद्धि एवं प्रतिष्ठा में पर्याप्त अभिवृद्धि की । सुप्रसिद्ध चोनी यात्री हथूनत्साग ने राजगृहा को "किउशोलोपुला" के नाम से स्मृत किया है, प्रतीत होता है कि उसके समय में "राजगृही" नाम के साथ-साथ वह " कुशाग्रपुर " के नाम से भी जानी जाती थी ।
श्रेणिक की मृत्यु के बाद राजगृही श्रीविहीन होती गई । जैन परम्परा के अनुसार राजगृही का सम्बन्ध अनेक जैन महापुरुषों से रहा है । तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का जन्म यहीं हुआ था | तीर्थंकर महावीर का प्रथम समवशरण' यहीं आया था तथा इन्द्रमूर्ति गौतम, जम्बूस्वामी, मेतायं, अभयकुमार, मेघकुमार, शालिभद्र, नन्दिपेग, विशाखनन्दि, शय्यभवसूरि प्रभृति महापुरुषों का राजगृही से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । यह भी उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती भरत के महामन्त्री श्रीदास थे । उसके वंशज, जो कि महतियाण गात्र के जैन श्रावक थे, यहाँ निवास करते रहे ।" किन्हों अज्ञात कारणों से उनका धर्म-परिवर्तन हो गया किन्तु उनका गात्र सुरक्षित रह गया जो वर्तमान में बिहार में महथा, मेहता अथवा महेता के नाम से जाना जाता है । बिहार सरकार ने इस गोत्र वाली जाति की गणना अनुसूचित जातियों में की है ।
१. दे० समराइच्च० १।१२
२. दे० राजगृह (लेखक - भँवरलाल नाहटा ) पृ० ३
३. दे० वही पृ० ४
४. दे० वही
५. दे० वही पृ० ७
६. हरिवंश पुराण (जिनसेन ) ६०।२१९ तथा उ० पु० ६०।२०- ५०
७. पद्मपुराण रविषेण २।११३
८. राजगृह पृ० १५
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