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महाकवि विबुध श्रीधर एवं उनकी अप्रकाशित रचना "पासणाहचरिउ"
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वर्णन (२।१०-१३) एवं वसन्तखण्ड (२०११-१६) के अंश पासणाहचरिउ के उक्त अंश से तुलनीय हैं । दोनों के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि जायसी का वनस्पति वर्णन श्रीधर के पल्लवित एवं परिष्कृत रूप है। पावं की शिक्षाएं
___ 'पासणाहचरिउ' में कुमार पार्श्व के लिए जिन शिक्षाओं को प्रदान किए जाने की चर्चा आई है वे प्रायः समकालीन प्रचलित एवं क्षत्रिय राजकुमारों तथा अमीर-उमराओं को दी जाने वाली लौकिक शिक्षाएँ ही हैं। कवि ने इस प्रसंग में किसी प्रकार का साम्प्रदायिक व्यामोह न दिखाकर विशुद्ध यथार्थ लौकिक एवं राष्ट्रीय-रूप को ही प्रदर्शित किया है । इन शिक्षाओं का विभाजन निम्न चार वर्गों में किया जा सकता है
१–आत्मविकास एवं जीवन को अलंकृत करने वाली विद्याएँ (साहित्य)-श्रुतांग, वेद, पुराण, आचार-शास्त्र, व्याकरण, सप्तभंगी न्याय, लिपिशास्त्र, लेखन क्रिया (चित्र-निर्माणविधि), सामुद्रिक शास्त्र, कोमल-काव्य-रचना, देशभाषा कथन, नवरस, छन्द, अलंकार, शब्दशास्त्र एवं न्याय दर्शन।
२-राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु आवश्यक विद्याएँ (कलाएँ)-गज एवं अश्वविद्या, शरशस्त्रादि संचालन, व्यूह-संरचना, असि एवं कुन्तसंचालन, मुष्टि एवं मल्लयुद्ध, असि बन्धन, शत्रु-नगर-रोधन, रणमुख में ही शत्रु-रोधन अग्नि एवं जल-बन्धन, वज्र-शिला-वेधन, अश्व, धेनु एवं गजचक्र का मूल बन्धन ।।
३-व्यावहारिक विद्याएँ (कलाएँ)-अञ्जन-लेपन, नर-नारी, अंग-मर्दन, सुर-भवन (मन्दिर) आदि में लेपन (चित्रकारी) का ज्ञान, नर-नारी वशीकरण, पाँच प्रकार के घण्टों का वादन, चित्तोपल, स्वर्णतरु के तागों का निर्माण, कृषि एवं वाणिज्य-विद्याएँ, काल-परिवंचण (अर्थात् अचूक औषधि-शास्त्र का ज्ञान एवं औषधि-निर्माण विद्या), सर्प-विद्या का ज्ञान, नवरसयुक्त भोजन-निर्माण-विधि एवं रति-विस्तार (कामशास्त्र का ज्ञान) ।
४-संगीत एवं वाद्य सम्बन्धी-विद्याएँ-मन्दल, टिविल, ताल, कंसाल, भंभा, भेरी, झल्लरी, काहल, करड, कंबु, डमरु, डक्क, हुडक्क एवं टट्टरी का ज्ञान ।
उपर्युक्त विद्याओं की सूची में एक भी अलौकिक विद्या का उल्लेख नहीं। कवि ने युगानुकूल उन्हीं समकालीन लोक प्रचलित विद्याओं का वर्णन किया है, जो एक उत्तरदायित्त्वपूर्ण मध्यकालीन राष्ट्राध्यक्ष को सामाजिक-विकास के लिए अत्यावश्यक, उन्नत, प्रभावपूर्ण तथा सर्वांगीण व्यक्तित्व-विकास के लिए अनिवार्य थीं। इसीलिए कवि का नायक-पाश्व, जैन होकर भी चारों वेदों एवं अष्टादश पुराणों का अध्येता बताया गया है। क्योंकि उसके राज्य में विविध धर्मानुयायियों का निवास था। संगीत में भी जिन वाद्यों की चर्चा कवि ने की है वे भी देवकृत अथवा पौराणिक वाद्य नहीं, अपितु वे वाद्य हैं, जो हरयाणा एवं दिल्ली तथा उनके आसपास के प्रदेशों में प्रचलित थे। अधिकांश वाद्य पंजाब एवं हरयाणा में आज भी १. पासणाह० २।१७ ।
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