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________________ महाकवि विबुध श्रीधर एवं उनकी अप्रकाशित रचना "पासणाहचरिउ" 5 प्रदेश को छोड़कर यमुना नदी पारकर ढिल्ली आया था तथा वहाँ राजा अनंगपाल के एक मन्त्री साहू अल्हण से उसकी सर्वप्रथम भेंट हुई। साहू अल्हण उसके 'चंदप्पहचरिउ' का पाठ सुनकर इतना प्रभावित हुआ कि उस कवि को नगर के महान् साहित्यरसिक एवं प्रमुख सार्थवाह साह नल से भेंट करने का आग्रह किया, किन्तु कवि बड़ा संकोची था । अतः उसने उनसे भेंट करने की अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि- "हे साह, संसार में दुर्जनों की कमी नहीं, वे कूट-कपट को ही विद्वत्ता मानते है, सज्जनों से ईर्ष्या एवं विद्वेष रखते हैं तथा उनके सद्गुणों को असह्य मानकर उनसे दुव्यवहार करते हैं । वे उन्हें कभी तो मारते हैं और कभी टेढ़ी-मेढ़ी आँखें दिखाते हैं अथवा कभी वे उनका हाथ, पैर अथवा सिर ही तोड़ देते हैं । किन्तु मैं तो ठहरा सीधा, सादा, सरल-स्वभावी, अतः मैं किसी के घर जाकर उससे नहीं मिलना चाहता।" किन्तु अल्हण साहू के पूर्ण विश्वास दिलाने एवं बार-बार आग्रह करने पर कवि साहू नट्टल के घर पहुँचा तो वह उसके मधुर-व्यवहार से बड़ा सन्तुष्ट हुआ। नट्टल ने कवि को प्रमुदित होकर स्वयं ही आसन पर बैठाया और सम्मान-सूचक ताम्बूल प्रदान किया। उस समय नट्टल एवं श्रीधर दोनों के मन में एक साथ एक ही जैसी भावना उदित हुई । वे परस्पर में सोचने लगे कि जं पुत्व जम्मि पविरइउ किपि । इत्र विहिवसेण परिणवइ तंपि ।। (१।८।९) अर्थात् 'हमने पूर्वभव में ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था, जिसका आज यह मधुर फल हमें मिल रहा है।' साहू नट्टल के द्वारा आगमन-प्रयोजन पूछे जाने पर कवि ने उत्तर में कहा- "मैं अल्हण साहू के अनुरोध से आपके पास आया हूँ। उन्होंने मुझसे आपके गुणों की चर्चा की है और बताया है कि आपने एक 'आदिनाथ-मन्दिर' का निर्माण कराकर उस पर 'पचरंगे झण्डे' को फहराया है। आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई है, उसी प्रकार आप एक 'पार्श्वनाथ-चरित' की रचना कराकर उसे भी प्रतिष्ठित कराइए जिससे आपको पूर्णसुखसमृद्धि प्राप्त हो सके तथा जो कालान्तर मोक्ष-प्राप्ति का कारण बन सके। इसके साथ-साथ चन्द्रप्रभ स्वामी की एक मूर्ति अपने पिता के नाम से उस मन्दिर में प्रतिष्ठित कराइए ।"२ कवि के कथन को सुनकर साहू नट्टल ने तत्काल ही अपनी स्वकृति प्रदान कर दी । कुछ भ्रान्तियाँ कुछ विद्वानों ने 'पासणाहचरिउ' के प्रमाण देते हुए नट्टल साहू द्वारा दिल्ली में पार्श्वनाथ-मन्दिर के निर्माण कराए जाने का उल्लेख किया है और विद्वज्जगत् में अब लगभग वही १. दे० पास० १।२७-८ । २. पास० १।९।१-४ । ३. दिल्ली जैन डाइरेक्टरी पृ० ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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