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________________ ( 30 ) भवन में है और कहाँ है ? तथा कौन नहीं है, इसकी जानकारी पण्डितजी से सहज ही की जा सकती थी। उनका शास्त्रीय ज्ञान अगाध था। इसके अतिरिक्त वे व्यवहारशास्त्र में भी आचार्य थे । किस समय क्या बोलना है ? यह वे बखूबी जानते थे। मुझे वाराणसी को अपना कार्यक्षेत्र बनाने में श्रद्धेय पण्डितजी का विशेष हाथ रहा है। काशीस्थ श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में दर्शनविभागाध्यक्ष पद पर मेरी नियुक्ति उन्हीं की पुनीत प्रेरणा से हुई थी। मेरी उपाधियों और योग्यता को देखकर उनके मन में मेरे प्रति एक आशंका अवश्य थी कि मैं अधिक दिनों तक विद्यालय को अपनी सेवायें न दे सकूँगा और पण्डितजी की उक्त आशंका उस समय मूर्त हो गई, जब मेरी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन-बौद्ध दर्शन विभाग में जैनदर्शन प्राध्यापक पद पर हो गई—मृषा न होइ देव रिसि बानी। वस्तुतः पण्डितजी का समग्र जीवन ऋषितुल्य रहा है । वे सच्चे अर्थों में सरस्वती-पुत्र थे। उनका वाक् संयम अपूर्व था। उनकी वाणी में अमृतोपम माधुर्य था । वे मितभाषी थे। किसी बात को थोड़े शब्दों में स्पष्ट करने का वाक् चातुर्य उनमें सहज समाहित था। महाप्रयाण के कुछ महीनों पूर्व मुझे पूज्य पण्डितजी से अष्टसहस्री पढ़ने का अवसर मिला। इस अवधि में मैंने देखा कि जो अष्टसहस्री अपनी क्लिष्टता के कारण विद्वानों में बाटसहस्री के नाम से विख्यात है, उसका पाठ बिना किसी आयास-प्रयास के लगाते चले जा रहे हैं। न कोई विश्राम, न कोई अटकन । जो बात लम्बे-चौड़े व्याख्यानों से भी स्पष्ट नहीं हो पाती है, वही बात पण्डितजी सहजभाव से अल्पशब्दों में स्पष्ट कर देते थे। उनका वैदुष्य अगाध था। साहित्य-साधना के क्षेत्र में पण्डितजी की सेवाएँ अमूल्य हैं। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की टीकाएँ की हैं और आधुनिक पद्धति से विभिन्न ग्रन्थों का सम्पादन एवं अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक मौलिक ग्रन्थों का भी सृजन किया है। जिन पर उन्हें न केवल उत्तर प्रदेश सरकार ने पुरस्कृत किया है, अपितु अनेक सामाजिक संस्थाओं ने भी पुरस्कृत कर अपने को धन्य माना है। उनके द्वारा लिखे गये मौलिक, सम्पादित एवं अनूदित ग्रन्थों की संख्या तीस के लगभग हैं। साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अभिनन्दन ग्रन्थों, स्मृति ग्रन्थों में लिखे गये लेखों की संख्या एक हजार के करीब है। लगभग ५५० लेखों की सूची तो उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में ही देखी जा सकती है । पूज्य पण्डितजी द्वारा लिखा गया जो साहित्य प्रकाश में आ गया है, उसकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वह सामग्री प्रकाशित होने के कारण सर्वसुलभ है। अतः सम्प्रति यहाँ उनके द्वारा जीवन के अन्तिम समय में की गई साहित्य-सम्पर्या का ही उल्लेख करना उचित होगा । क्योंकि यह सामग्री अभी प्रकाश में आने की प्रतीक्षा कर रही है। श्रद्धेय पण्डितजी की मेरे ऊपर छात्र जीवन से ही विशेष कृपादृष्टि रही है । अतः वाराणसी आने पर उनके साथ उठना-बैठना होता रहता था। प्रसंग उपस्थित होने पर साहित्य सृजन की चर्चा भी हो जाती। इसी क्रम में एक बार पण्डितजी ने बतलाया था कि मेरे कुछ ग्रन्थ तैयार रखे हैं, किन्तु उनके प्रकाशन की अभी तक व्यवस्था नहीं हो पाई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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