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________________ ( 29 ) गोरावाला, डॉ० दरबारीलाल कोठिया, (स्व०) डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य, (स्व०) डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी, (स्व०) प्रो० डॉ० राजकुमार जैन साहित्याचार्य, डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, प्रो० उदयचन्द्र जैन, पं० अमृतलाल शास्त्री, डॉ. प्रेमसागर जैन, डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रो० डॉ० राजाराम जैन, मो० डॉ० विमलप्रकाश जैन आदि श्रद्धेय पण्डितजी के साक्षात् शिष्य हैं। वयोवृद्ध विद्वान् श्रीमान् ब्र० पण्डित जगमोहन लाल जी सिद्धान्तशास्त्री एवं सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री पूज्य पण्डितजी के सहाध्यायी हैं । पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री स्वयं स्याद्वाद महाविद्यालय के स्नातक हैं। इनकी योग्यता एवं कर्तव्यनिष्ठा के कारण ही इनकी नियुक्ति इसी विद्यालय में की गई थी और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वे विद्यालय से जुड़े रहे । पूज्य पण्डितजी विद्यालय की दीर्घकालीन सेवाओं में उनकी अनुशासनप्रियता, प्रशासनिक क्षमता, अध्यापन-शैली आदि सभी प्रशंसनीय रहे हैं । वे सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति थे। पूज्य पण्डितजी की वाणी में नवयुवकों जैसा जोश था। वे सत्य बात कहने में कभी नहीं चूकते थे। अपने इस सत्य कथन के लिये उन्हें अनेक बार विद्वानों, सेठ-साहूकारों, त्यागियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा है। त्यागियों, मुनियों में बढ़ रहे शिथिलाचार के वे प्रबल विरोधी थे। इसी कारण कुछ तथाकथित मुनिभक्त उन्हें मुनि-विरोधी मानते थे। जबकि सच्चाई यह है कि वे आगमानुकूल चलनेवाले त्यागियों, मुनियों का आदर करते थे। __ उनकी लेखनी जीवन के अन्तिम समय तक अप्रतिहत गति से चलती रही। गजरथ जैसे ग्वज़ले महोत्सवों का कभी उन्होंने समर्थन नहीं किया। वे ज्ञानरथ प्रवर्तन के पक्षपाती थे। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि स्वाध्याय एवं ज्ञानार्जन के बिना हम जैन समाज में फैली कुरीतियों, बुराइयों को दूर नहीं कर सकते हैं। जैन सन्देश के अनेक सम्पादकीय लेख आज इस बात के प्रबल साक्षी हैं कि पंडितजी जैन समाज के प्रत्येक सदस्य को सच्चे अर्थों में 'जैन' के रूप में देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि हमारी भावी पीढ़ी न केवल ज्ञानवान्, अपितु आचार वान् भी हो । क्योंकि सदावार के अभाव में देश एवं समाज की उन्नति संभव नहीं है। श्रद्धेय पण्डितजी को लेखनी और वाणी में जादू था। उन्होंने जिस विषय पर अपनी लेखनी चलाई वह विषय धन्य हो गया । जिस विषय को वाणी दी वह जीवन्त हो गया। गंगा के सुरम्य तट पर स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय का वह कक्ष, जिसमें पण्डितजी अध्ययन, अध्यापन एवं लेखन कार्य करते थे, कृतकृत्य हो गया। पण्डितजी जब वाराणसी में उपस्थित रहते थे तब दिन में दो से पांच बजे तक वे अपने कक्ष में साहित्य-साधना में तल्लीन रहते थे ! विद्यालय के अकलंक सरस्वती भवन का जैसा उपयोग पूज्य पण्डित जी ने किया है, वैसा किसी अन्य विद्वान् ने किया हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। कौन ग्रन्थ सरस्वती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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