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( 31 ) तैयार ग्रन्थों के नाम पूछने पर उन्होंने जिन ग्रन्थों के नाम बतलाये, वे इस प्रकार हैं
१. लघीयस्त्रय का हिन्दी अनुवाद, २. तत्त्वार्थसूत्रगत प्रश्नोत्तर, ३. प्रमेय-विचार, ४. समयसार का हिन्दी अनुवाद,
५. कषायपाहुड की मूल गाथाओं का हिन्दी अनुवाद ( चालू है )। उक्त कृतियों के सन्दर्भ में मुझे जो जानकारी है, उसका विस्तृत-विवेचन इस प्रकार है--- १. लघीयस्त्रय
___ यह आचार्य अकलंकदेव रचित लघीयस्त्रय का पण्डितजी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी के कार्यालय में उपलब्ध है। इसके प्रकाशन हेतु संस्थान ने स्वीकृति दे दी है। यह ग्रन्थ शीघ ही वर्णी संस्थान द्वारा प्रकाशित होगा । २. तत्त्वार्थसूत्रगत प्रश्नोत्तर
___ यह ग्रन्थ उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं पर आधारित है । इसमें पण्डितजी ने तत्वार्थसूत्र और उस पर विभिन्न आचार्यों द्वारा लिखी गई टीकाओंसर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक एवं तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार में जैनदर्शन समस्त मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन करनेवाले प्रश्नों और विभिन्न आ वार्यों द्वारा किये गये उनके समाधानों का संकलन है । इसमें पण्डितजी ने जैनेतर दर्शनों से सम्बन्धित प्रश्नों को छोड़ दिया है। यह जानकारी मुझे पूज्य पण्डितजो से प्राप्त हुई थी। इसको पाण्डुलिपि मुझे देखने को नहीं मिली है। यह ग्रन्थ उपर्युक्त लघीयस्त्रय की भाँति श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान द्वारा प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत हो चुका था, किन्तु जब मैंने संस्थान के संयुक्तमन्त्री होने के कारण उक्त ग्रन्थ की पाण्डुलिपि माँगी तो उन्होंने बतलाया कि वर्णी संस्थान से प्रकाशित होने में विलम्ब होगा। अतः मैंने 'तत्त्वार्थसूत्रगत प्रश्नोत्तर' की पाण्डुलिपि जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी ( राज० ) के अधिकारियों को दी है। उन्होंने उसे शीघू प्रकाशित करने का वचन दिया है, किन्तु यह ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं आया है और न ही इसके प्रकाशन की प्रगति की मुझे कोई जानकारी है । ३. प्रमेय-विचार
यह ग्रन्य पण्डितजी द्वारा लिखित 'जैनन्याय' ( प्रकाशक -भारतीय ज्ञानपीठ ) का उत्तरार्द्ध है। इसमें उन्होंने प्रमेय पर विचार किया है। यह ग्रन्थ खण्डन-मण्डन की शैली में लिखा गया है। पण्डतजी ने पहले इसका नाम "जैन न्याय भाग २” रखा था, किन्तु बाद में उसे काटकर 'प्रमेय-विचार' कर दिया है । इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि मेरे पास सुरक्षित है । इसके प्रकाशन हेतु मैंने पूज्य पण्डितजी के सहपाठी एवं अभिन्न मित्र श्रीमान् पण्डित जगन्मोहन
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