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थे । यही कारण है कि कई महीनों पहले से अनेक स्थानों से उन्हें बुलाने के लिए निमंत्रण आते रहते थे और पं० जी यथासंभव भारत के अनेक नगरों में जाते भी थे । भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में भी समय-समय पर पं० जी के महत्त्वपूर्ण भाषण हुए हैं ।
पं० जी के कुशल लेखक होने का प्रमाण यह है कि उनके द्वारा लिखा गया साहित्य विशाल है । जैन दर्शन, जैन सिद्धान्त और जैनागम के उच्च कोटि के अनेक ग्रन्थों का लेखन सम्पादन और अनुवाद पं० जी की लेखनी द्वारा हुआ है । उनके द्वारा लिखित 'जैन न्याय' नामक पुस्तक बतलाती है कि उन्हें न्यायशास्त्र का कितना अच्छा ज्ञान था। वे जैन साहित्य के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। उनके द्वारा लिखित 'जैन साहित्य की पूर्व पीठिका' तथा 'जैन साहित्य प्रथम और द्वितीय भाग को पढ़ने से ज्ञात होता है कि पं० जी ने कितने परिश्रमपूर्वक उक्त ग्रन्थों को लिखा है । कहने का तात्पर्य यह है कि पं० जी जिस विषय पर लेखनी चलाते थे उसमें जान आ जाती थी । पं० जी द्वारा सम्पादित ग्रन्थों की प्रस्तावनाएं इतनी उच्च कोटि की हैं कि उन्हें शोधप्रबन्ध कहना अधिक उपयुक्त होगा । यदि ऐसी प्रस्तावनाओं का लेखक कोई अन्य ( अजैन ) विद्वान् होता तो कई विश्वविद्यालय उन्हें सम्मानार्थ डाक्टरेट की डिग्री संहर्ष प्रदान करते ।
पं० जी उच्च कोटि के निर्भीक पत्रकार थे । भारतवर्षीय दि० जैन संघ ( मथुरा ) के साप्ताहिक पत्र 'जैन सन्देश' के वे अनेक वर्षों तक सम्पादक, प्रधान सम्पादक रहे। उनके द्वारा लिखे गये सम्पादकीय लेख समाज के लिए बहुत ही प्रेरणाप्रद और मार्गदर्शक होते थे । जैन सन्देश का प्रत्येक पाठक पं० जी के सम्पादकीय को पढ़ने के लिए उत्सुक रहता था । वे सम्पादकीय लिखने में सदा निर्भीक रहे। उन्होंने परिस्थितियों से कभी समझौता नहीं किया और उनका जो सिद्धान्त था उस पर वे के लिए वे मुनिभक्त तो थे किन्तु मुनियों के शिथिलाचार के कारण है कि उन्हें कभी-कभी मुनियों के शिथिलाचार के विरोध में लेखनी चलानी पड़ी । इतना ही नहीं, वर्तमान में जैन युवकों में जो शिथिलाचार की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर हो रही है उस पर भी पं० जी ने समय-समय पर लिखा है । यदि पं० जी द्वारा लिखे गये समस्त सम्पादकीय लेखों का संकलन कर उन्हें एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाय तो जैन समाज के लिए यह एक अमूल्य निधि होगी ।
सदा अटल रहे । उदाहरण तीव्र विरोधी भी थे । यही
पं० जी एक कुशल प्रशासक थे। स्याद्वाद महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहकर उन्होंने सर्व छात्रों एवं अध्यापकों पर अपना पूर्ण प्रभाव रक्खा । वे स्वयं अनुशासन प्रिय थे और चाहते थे कि समस्त छात्र और अध्यापक अनुशासन में रहें और ऐसा हुआ भी । शायद ऐसा कोई छात्र हो जिसने पं० जी के आदेश का उल्लंघन किया हो । स्याद्वाद महाविद्यालय और पं० जी का परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध था । अर्थात दोनों को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता था। स्याद्वाद महाविद्यालय के संस्थापक प्रातःस्मरणीय पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने अपनी जीवनगाथा में लिखा है कि पं० जी स्याद्वाद महा
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