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________________ ( २३ ) विद्यालय के प्राण हैं। उनका यह कथन शत प्रतिशत सत्य प्रमाणित हुआ है । प्राचार्य पद से निवृत्त होने पर अनेक संस्थाओं की ओर से पं० जी को आमंत्रण मिले कि आप हमारे यहाँ आ जाइये । परन्तु पं० जी स्याद्वाद महाविद्यालय का मोह कैसे छोड़ सकते थे । अतः अधिष्ठाता पद पर रह कर वे स्याद्वाद महाविद्यालय की सेवा में निःस्वार्थ भाव से पूर्ववत् तत्पर रहे । तात्पर्य यह है कि उन्होंने जीवनपर्यन्त स्याद्वाद महाविद्यालय की तन-मन से सेवा की है। सेवा के ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलेंगे। ___ यह सब जानते हैं कि वर्तमान युग अर्थप्रधान युग है। ऐसे युग में भी पं० जी की वृत्ति सदा निःस्पृह रही है। उन्होंने अल्प वेतन में सन्तोषपूर्वक अध्यापन कार्य किया है । वे प्रत्येक वर्ष पर्युषण पर्व आदि अवसरों पर समाज के निमंत्रण पर बाहर जाते थे और अपने जीवन में स्याद्वाद महाविद्यालय के लिए लाखों रुपये समाज से लाये किन्तु उन्होंने समाज से अपने लिए मार्ग-व्यय को छोड़कर एक पैसा भी नहीं लिया। निःस्पृह वृत्ति का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। वे स्याद्वाद महाविद्यालय के प्राण तो थे ही, इसके अतिरिक्त दि० जैन संघ भारतीय ज्ञानपीठ, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, प्राकृत शोध संस्थान वैशाली आदि अनेक संस्थाओं से पं० जी का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । तात्पर्य यह है कि पं० जी स्वयं एक संस्था थे। पं. जी अनुशासन में कठोर होते हुए भी स्वभाव से सरल थे। सभी छात्रों पर उनका पितृ तुल्य स्नेह रहता था और वे सबकी उन्नति की कामना करते थे । पं० जी का मुझ पर प्रारंभ से ही विशेष स्नेह रहा है । सन् १९६० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन के प्राध्यापक पद पर मेरी नियुक्ति हुई। उस समय मैं विदिशा में था । कुछ कारणों से मैं यह निश्चय नहीं कर पा रहा था कि वाराणसी जाऊँ या यहीं रहूँ। क्योंकि उस समय वाराणसी आने में कोई आर्थिक लाभ प्रतीत नहीं हो रहा था । किसी सूत्र से पं. जी ने मुझे स्वयं एक पत्र लिखा कि सब विकल्पों को छोड़ कर शीघ्र यहाँ आ जाओ। पं० जी का पत्र मिलते ही मैं सर्व विकल्पों को छोड़कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आ गया। इस बात से पं० जी को परम प्रसन्नता हुई। उसी समय श्रीमान् पं० दरबारी लाल जी कोठिया की नियुक्ति भी जैन दर्शन के प्राध्यापक पद पर हुई थी। सौभाग्य की बात यह थी कि पं० जी, कोठिया जी और मैं तीनों नित्य सायंकाल आनन्द पार्क में एक घण्टा बैठते थे और धार्मिक सामाजिक राजनीतिक आदि विषयों पर चर्चाएं हुआ करती थी। यह क्रम ९०-२५ वर्ष तक बराबर चलता रहा। अब तो वे सब बातें स्मृतिमात्र शेष रह गई हैं। कुछ वर्षों बाद कोठिया जी जैन-बौद्धदर्शन में रीडर हो गये और जब सन् ७४ में कोठिया जी उक्त पद से सेवा निवृत्त हुए तब पं० जो इस बात के लिए उत्सुक थे कि अब में रीडर हो जाऊँ और इसके लिए पं० जी का पूर्ण आशीर्वाद मुझे प्राप्त था । अतः कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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